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उज्जीवन

ujjiwan

अनुवाद : विनोद रिंगानिया

हरेकृष्ण डेका

अन्य

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और अधिकहरेकृष्ण डेका

    अपने शीशमहल में

    रचता हूँ सपनों का उद्यान

    स्वर्ण की शोभा देखता हूँ यहीं

    सुनता हूँ किन्नर कंठ का गान।

    स्वप्न के मकड़े पर चढ़

    जब झपकी लेता हूँ

    हज़ारों चीटियों को

    साथ-साथ आते देखता हूँ।

    ध्वजावाही जन गण

    कहाँ जा रहे हो सभी

    एक साथ चीखते हैं वे, अरे देखो

    इस अजीब जीव को।

    गर्दन घुमाकर देखता हूँ उन्हीं को

    सुनता हूँ जीवन का आह्वान

    क्लांत नहीं, कहते हैं, प्राणमय करता है जीवन को।

    हालाँकि है परावृत्ति का अभियान।

    हँसता हूँ मन ही मन। सोचता हूँ

    पीसकर रख दूँ इनको

    आगे बढ़ते हैं दो कठोर हाथ

    लौटते हैं शीशे की दीवार से टकरा कर।

    तभी सुनता हूँ चीं-चीं की आवाज़

    अरे कौन हैं वे?

    वाह! आसमान की खिड़की में है

    हज़ार गौरेयों की सौगात।

    खुली है मेरे सीने की खिड़की

    बनाएँगी घोंसला यहाँ?

    रोशनी के शहद की बूँद मुँह में

    बोलती मुझसे हैं कहाँ।

    अनदेखी वीणा पर अंगुली पड़ती है

    अब नहीं रुक सकता और

    यातना से तोड़कर शीशमहल अपना

    निकल आता हूँ मैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कोई दूसरा (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : हरेकृष्ण डेका
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2021

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