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उजाड़

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अनिल त्रिपाठी

उफ़! यह जेठ की गरमी

उत्तर पेड़ों का समय

सभ्यता तो प्रकृति की

इतनी जानी दुश्मन कभी नहीं थी।

ऐसे में अतीत वर्तमान को ठेलता

सरक आया है पास

लहर दर लहर स्मृतियाँ सवार हैं नाज़ुक पंखों पर

जैसे कोई पुरानी पालों वाली नाव हवा के इशारों पर

चलती है आहिस्ता...

याद है जैसे-जैसे चढ़ती थी दुपहर

दूर खेतों में दिखाई देता घाम

बहते हुए पानी के मानिंद

तब पेड़ों पर ही हमारा सबसे अधिक भरोसा होता।

बड़े-बुज़ुर्ग चरखी हाथ में लें

कातते सुतली बनाते बाध किसी बाग़ में

साथ में होता लोटा और डोरी

प्यास और पानी की दूरी को पाटता।

लू से तप्त गरमी भी

तब हमारी दुश्मन नहीं लगती थी जैसे कि अब लगती है

इस माचिस की डिबिया सरीखे कमरे में

जहाँ खिड़कियों से भी हवा को आने की इजाज़त नहीं

जहाँ हम अदहन में चुरते पानी की तरह हैं।

इस भीषण लू में भी

जीत की होड़ लगाते थे लड़कों के झुँड

बागों के पेड़ शामिल होते हमारे इस खेल में।

तब दुपहरी भी साथ में लाती फ़ुर्सती लम्हा

ससुराल आई नई दुलहनों के लिए

बहन-बेटियाँ सब चौका-बासन के बाद

इस गरमी को आँक देती

बातों के बतासे से खाँड़ के रस की तरह।

आज अब कहाँ वह दुपहरी

पालों वाली नाव कहाँ अब।

पेड़ और मैदान और उछाह और खेल भी कहाँ अब?

मुझे दुख है कि मेरा बेटा आम के पेड़ पर तो क्या

अमरूद के पेड़ पर चढ़कर अमरूद खाए बिना ही

बड़ा हो जाएगा

और बेटी को एक सोहर तक भी नहीं याद होगा।

क्या कभी वे जान पाएँगे कि

बाँस के फूलने का मतलब

बाँस का उजड़ना होता है

जैसे हममें बहुत कुछ है

जो उजड़ रहा है धीरे-धीरे...।

स्रोत :
  • रचनाकार : अनिल त्रिपाठी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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