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तुम्हारे देस में

tumhare des mein

उत्कर्ष

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उत्कर्ष

तुम्हारे देस में

उत्कर्ष

और अधिकउत्कर्ष

    मीठा है झील का पानी

    जैसे अभी निकला हो

    तुम्हारी मुस्कुराहट की थाप से छूट कर

    संगीत के पहले स्वर-सा

    मैं पहुँचा हूँ

    तुम्हारे देस में

    रास्ते भर के जीवन से होकर

    रास्ते भर छूट गया मुझसे

    हर शाम का सूरज

    हर सुबह की इबादत

    छिटक गई

    यहाँ तुम्हारे देस में

    यहाँ तो हर दुआ अज़ान है

    बच्चों की हर मुस्कुराहट

    प्रार्थना की स्वरांजलि

    तुम्हारा यह देस

    दुनिया और आसमान के बीच की जगह है

    असमतल और असमान सतह से ऊपर

    रँगरेज़ों की तल्लीन कामगारी

    यारबाशी के परिंदों का आसमान

    अहं की चौखट से नीचे

    तुम्हारे देस में महुआ है

    अमलतास बीघे की आड़ पर

    तोंत की चटक डाल दुपहरी के काँधे चढ़ी है

    मैं कुछ गुलमोहर समेटता हूँ

    और शाम अपनी चादर मुझे सौंपे जाती है

    तुम्हारे देस में

    मैं सभी उपमानों से मुक्त होकर रचता हूँ

    सभी मोह से विरक्त

    तुम्हारे देस के प्रेम में डूबे-डूबे

    शांति के गीतों में डूब

    उस पार बैरागी बन निकलता हूँ

    तुम्हारे देस के बैरागी मेरे जैसे होते होंगे पहले

    निपट मूर्ख और भोले

    जो भ्रम और भेद में अंतर नहीं खोज पाते

    जैसे साँझ का होना और पाना

    जैसे हमारा होना और भटकना

    तुम्हारे देस में

    भाषा तितली हो जाती है

    मैं भागता हूँ

    उसके पराग-पथ को पहचानते

    तुम्हारे देस में

    सूरज कभी पूरा नहीं डूबता

    शाम एक झपकी पर उठ जाती है

    सुबह गिलहरियों का उत्सव है

    तुम्हारे देस में

    मैं मनुष्य के सबसे स्वच्छ वस्त्र धारण करता हूँ

    तुम्हारे देस में

    रोटियों में चाँद चखता है भूख का स्वाद

    मैं लोरियों की मनलहरी

    तुम्हारे देस में

    मैं अपनी कुहनी के तकिये में ग़ोते अपना सर

    देखता हूँ तुम्हें

    मुझे अपलक निहारते

    पूरी पूर्णिमा के चाँद तक

    तुम्हारे देस में

    मैं संपूर्ण यायावर होता हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : उत्कर्ष
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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