तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त

tum naraz mat hona meri dost

राहुल कुमार बोयल

राहुल कुमार बोयल

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त

राहुल कुमार बोयल

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आजकल मैं तुमसे ज़्यादा

आधी रात को उस समय को सोचता हूँ

जिसमें रोटी की क़ीमत से

पेट का भविष्य तय होता था

तुम सुनकर सिहर मत जाना

कि अब पेट की क़ीमत से

रोटी का भविष्य तय होता है।

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आजकल मैं तुम्हारी आँखों से ज़्यादा

देश-दुनिया की ख़बरों पर नज़र गाड़े रखता हूँ

तुम नहीं जानती, दुनिया ईमान की बातें करते-करते

हमारी बेख़ुदी की छोटभ सी घड़ी में

हमारे वजूद पर तोहमत लगाने में ज़रा भी देर नहीं करती।

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आजकल मेरी कविताओं में

तुम्हारी साफ़गोई के क़िस्सों की जगह

किसी बनिए सा हिसाब-किताब लिखती ज़िंदगी होती है

जिस दिन तुम्हें बड़ी रोशनियों के छलावों का इल्म होगा

तुम समझ जाओगी कि

सफ़ेद काग़ज़ों पर स्याही गिराना

ज़रूरी क्यों होता है।

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आजकल मैं ज़िरह की कलाई थामकर

तुम्हें बहस के दौर तक ले आता हूँ

जबकि सच यही है कि कुर्सियों को भी

लाशों पर टिकी हुई तशरीफ़

और झूठ का सहारा ली हुई पीठ की

आदत पड़ गई है

देखना! एक दिन तुम भी रोज़नमचे में

साँसों की ग़लतियों की तरह दर्ज करने लगोगे।

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आजकल मैं तुम्हारी चिबुक पर

चुंबन धरने के ख़ूबसूरत वक़्त में

किसान के धान का अनुमान लगाता हूँ

पर तुम्हारा ये जानना ज़रूरी है कि

एक भूखा चाँद को रोटी की तरह तकता है

और चाँद भूखे को राहु समझ छिपता है।

तुम नाराज़ मत होना मेरी दोस्त!

तुम नाराज़ मत होना

कि आज कल मैं तुम्हारे चेहरे की चहक देख

फ़रिश्तों की मुरव्वत का अफ़साना नहीं लिखता

पर ये सब सिर्फ़ इसलिए है

ताकि बदतर होते समय की छाती पर

मुस्तक़बिल के सुनहरे हस्ताक्षर लिए जा सकें।

स्रोत :
  • पुस्तक : पूर्वग्रह 166-67 (पृष्ठ 184)
  • संपादक : प्रेमशंकर शुक्ल
  • रचनाकार : राहुल कुमार बोयल

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