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तुम हो कौन!

tum ho kaun!

मोना गुलाटी

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मोना गुलाटी

तुम हो कौन!

मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    शब्दों के बाहर

    तुम हो : मात्र तुम

    मुझे

    छूते हुए!

    तमाम इंगितों से मेरे पोर-पोर को बुलाते हुए

    तुम :

    तुम हो मात्र... तुम।

    तुम्हारा अंदाज़ :

    तुम्हारा अपने पास

    बुलाना और भीतर की पर्तों में पैदा करना

    कशिश :

    खड़ा कर देना किसी जंगल

    में और फिर

    खींच देना भूल-भुलैया-सी

    पगडंडियाँ और

    उनमें बिछ जाना महक के

    साथ :

    सब होंठों की मुस्कुराहट और आँखों के

    आँसुओं में एक साथ

    खिंच जाता है : और

    मेरे पास

    नहीं होते शब्द

    पूछने के लिए कि

    तुम : तुम जो तुम हो :

    यह सब क्या करते हो

    चमत्कार : तुम हो :

    इतना भरने

    के लिए होता है काफ़ी : अचंभित

    होने ही नहीं देते तुम :

    कैसे शख़्स हो

    मात्र आह्लादित कर देते हो चुपचाप : गुपचुप

    बिना जान-पहचान के रास्ते पर

    परिचित अशोक वृक्ष

    की छाया; युकिलिप्टिस की पत्तियाँ, पक्षियों की

    क़तार और

    आसमान का रंग

    बन

    क्यों घिर आते हो तुम : कैसे

    घिर आते हो तुम :

    बताओ : तुम

    कहाँ से लाए हो

    प्यार करने के इतने अपरिमित

    ढंग :

    दरारों से रिस आत हो तुम और पसीज

    जाते हो हथेलियों में मौन मुग्ध!

    तुम :

    कौन हो तुम!

    इतना प्यार समेटे हुए और

    लगातार तोड़ते हुए : तुम!

    सच कहें :

    हम तुम्हें कितना भी प्यार करें;

    पर तुम इतना छूते ही बिना पकड़ में आए :

    हम कहें

    तुम्हें क्या!

    बेहद बेशर्म हो दोस्त!

    बार-बार छोड़ते; उदास

    करते और गहरी मदहोशी में डुबाते हुए

    तुम : आह! मात्र तुम;

    ओह! तुम!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 123)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

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