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त्रिवेणी

triweni

अनुवाद : चंद्रकांत बांदिवडेकर

विंदा करंदीकर

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विंदा करंदीकर

त्रिवेणी

विंदा करंदीकर

और अधिकविंदा करंदीकर

    1

    ...उगते विभास की लाल भोर...

    पिंगल रंग के यतीम बाल

    मुँह के सामने धुनक बिखेरकर तू बोली

    “...यह देखो हौवा आया!”

    तुम्हारी नन्ही-सी रेंट भरी नाक

    निकल आई बालों से

    झिलमिलाती आँखें

    (रीठ के बीज) मैं डरा

    भोर के अँधेरे में। हड़बड़ा गया।

    (अभी तो बिस्तर में ही) और आँखों पर

    गुदड़ी ओढ़ घबराकर चिल्लाया

    “ऐ दादी यह देखो इंदुटली

    क्या कर रही है, कैसे डरा रही है

    बाल बिखेर कर।

    रात की चिंदियाँ

    पीठ पर फटकारकर तुम हुई

    क्षण में अदृश्य और धारण किया

    अल्हड़ अबोला, नाक-झिड़की का

    गाल-फुलाई का, उँगली की कट्टी का,

    कट्टी, कट्टी फू का।

    फलों-फूलों की मिट्टी का

    हरा हेमंत गया फलाँगता

    पके पत्तों में से।

    यह नीला सपना तुमने ही उकेरा था, अय, अल्हड़ बाले!

    2

    “चोखा उजाला” बोली दादी

    छुआरे-सी झुर्रियोंदार और हम

    एक ही बिस्तर से उठकर हुए तितर-बितर

    आँगन की नग्न धूप में।

    सूरज की धूप का

    ज़रीदार घाघरा तुमने पहना

    और शरीर की पीली नग्नता

    धूप में घुल गई।

    उसी वक़्त हमारे

    नंगे शरीरों में पहली बार प्रविष्ट हुई

    अशरीरी लज्जा। छलछला गई।

    मैंने महसूसा तुम्हारे बदन का

    सलज्ज कौतुक! तुम रुनझुना गई :

    “बार-बार क्या देखता है रे?

    बता पहले, बता पहले, बता।”

    अधिक ही शर्माया तुम्हारे शब्दों की

    ठसक से ठोकर खाकर। नहीं बोला।

    सिर्फ़ लंबा किया कुर्ते का छोर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 56)
    • रचनाकार : विंदा करंदीकर
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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