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अघोषित उलगुलान

aghoshait ulagulan

अनुज लुगुन

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अनुज लुगुन

अघोषित उलगुलान

अनुज लुगुन

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    रोचक तथ्य

    इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    अलस्सुबह दांडू का क़ाफ़िला

    रुख़ करता है शहर की ओर

    और साँझ ढले वापस आता है

    परिंदों के झुंड-सा

    अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन

    और कटती है रात

    अधूरे सनसनीख़ेज़ क़िस्सों के साथ

    कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह

    दबी रह जाती है

    जीवन की पदचाप

    बिल्कुल मौन!

    वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत

    ज़हर-बुझे तीर से

    या खेलते थे

    रक्त-रंजित होली

    अपने स्वत्व की आँच से

    खेलते हैं शहर के

    कंक्रीटीय जंगल में

    जीवन बचाने का खेल

    शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं शहर में

    अघोषित उलगुलान में

    लड़ रहे हैं जंगल

    लड़ रहे हैं ये

    नक़्शे में घटते अपने घनत्व के ख़िलाफ़

    जनगणना में घटती संख्या के ख़िलाफ़

    गुफ़ाओं की तरह टूटती

    अपनी ही जिजीविषा के ख़िलाफ़

    इनमें भी वही आक्रोशित हैं

    जो या तो अभावग्रस्त हैं

    या तनावग्रस्त हैं

    बाक़ी तटस्थ हैं

    या लूट में शामिल हैं

    मंत्री जी की तरह

    जो आदिवासीयत का राग भूल गए

    रेमंड का सूट पहनने के बाद

    कोई नहीं बोलता इनके हालात पर

    कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर

    पहाड़ों के टूटने पर

    नदियों के सूखने पर

    ट्रेन की पटरी पर पड़ी

    तुरिया की लावारिस लाश पर

    कोई कुछ नहीं बोलता

    बोलते हैं बोलने वाले

    केवल सियासत की गलियों में

    आरक्षण के नाम पर

    बोलते हैं लोग केवल

    उनके धर्मांतरण पर

    चिंता है उन्हें

    उनके 'हिंदू’ या 'ईसाई’ हो जाने की

    यह चिंता नहीं कि

    रोज़ कंक्रीट के ओखल में

    पिसते हैं उनके तलवे

    और लोहे की ढेंकी में

    कूटती है उनकी आत्मा

    बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए

    लड़ रहे हैं आदिवासी

    अघोषित उलगुलान में

    कट रहे हैं वृक्ष

    माफियाओं की कुल्हाड़ी से और

    बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल,

    दांडू जाए तो कहाँ जाए

    कटते जंगल में

    या बढ़ते जंगल में…?

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुज लुगुन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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