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ऐसे भी तो संभव है मृत्यु

aise bhi to sambhaw hai mirtyu

जितेंद्र कुमार

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जितेंद्र कुमार

ऐसे भी तो संभव है मृत्यु

जितेंद्र कुमार

और अधिकजितेंद्र कुमार

    रात के अँधेरे में एक दिन

    मैं सहसा मर जाऊँगा

    तो लोग घंटियों की आवाज़ें नहीं सुनेंगे

    वे सो रहे होंगे

    वे उदास

    चिंतित व्यथित लोग भी

    जिन्हें रात रात भर नींद नहीं आती

    दिन का उजियारा होने के पहले ही तो

    उन्हें एक झपकी आती है

    फिर दिन भर उनकी आँखें जलती रहती हैं

    मैं खुले आकाश के नीचे मरूँगा

    उस दिन साफ़ खुले आकाश में

    चाँद बहुत छोटा होगा

    और तारे

    अपनी संपूर्ण प्रतिभा से चमक रहे होंगे

    सहसा एक चिलकन

    मेरे बाईं तरफ़ पैदा होगी

    थोड़ी देर मैं

    मृत्यु से बचने के लिए तड़पूँगा

    फिर सब शांत हो जाएगा

    मेरी यह मृत्यु निश्चित है

    पर शायद मरने के पहले

    मैं उनमें से वह नक्षत्र खोजने की

    कोशिश करूँ

    जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है

    फिर मैं मर जाऊँगा

    हालाँकि नींद में मरना आसान होता है

    शायद कोई

    मेरी पत्नी को सूचना दे

    शायद थोड़ी देर

    या कभी बाद में

    मेरे बेटे को एक ख़ालीपन महसूस हो

    जिसे उस वक़्त

    वह ठीक से समझ नहीं पाएगा

    शायद कुछ लोग और भी हों

    प्रेम या नफ़रत से भरे हुए

    पर इन क्षेत्रों में भी मैं भिखमंगा ही रहा हूँ

    कुछ भी तो ठीक से मैंने नहीं किया

    इतने सालों में

    जो कुछ भी कर सकने के लिए काफ़ी थे

    उतना अच्छा बना

    जितना बचपन में सोचता था

    उतना ओछा

    जितना हो सकता था

    कुछ भी तो नहीं हुआ जैसा वह संभव था

    अपनी मृत्यु के बारे में

    इस तरह सोचना आत्मश्लाघा है

    पर ऐसे

    ऐसे भी तो संभव है मृत्यु!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आईने में चेहरा (पृष्ठ 14)
    • रचनाकार : जितेंद्र कुमार
    • प्रकाशन : जयश्री प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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