मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ
main ikkiswin sadi ka ek drishya hoon
पत्नी के शव को अकेले कंधे पर ले जाते हुए दाना माँझी को टी.वी. पर देखते हुए
मैं बहुत देर तक अपने कंधे के विकल्प ढूँढ़ता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे
मेरे पास पैसों की ज़मीन थी न रसूख़ की कोई डाल
हाथ-पाँव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी
हाँ अनुभव था लट्ठों को काट-काट कर कंधे पर ले जाने का पुराना
मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था
मुझे जल्दी घर पहुँचना था
अपने घर से बाहर छूट गए एक बीवी के प्राण
घर के जालों-कोनों में अटके मिल सकते थे
मेरा रोम-रोम कह रहा था यहाँ से चलो
मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़
और कोई मझसे कह रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े
बचे हुए हैं
मेरी आँखों ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर ले जाते देखा है न
मेरे हाथ पैर कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य-भार है बोझ नहीं
मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आँखों में शरण ली
उपग्रह-सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी को निहार रही थी
मैं बादलों-सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बाँध को टूटने से रोक रखा था
इसके टूटने ने मुझे जाने कहाँ बहा ले जाना था
हम दोनों एक नि:शब्द यात्रा पर निकल पड़े...
यात्रा लंबी थी मेरी बच्ची के पाँव छोटे
तितलियों के पाँव चलने के लिए होते भी कहाँ हैं
वे तो फूलों पर बैठते वक़्त निकलते हैं बाहर
मेरी तितली मेरे कंधों के छालों की ओर देख रही थी बार-बार
ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अँधेरे में टटोला
हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था
मौन का कोई किनारा तो होता नहीं
सो कंधे पर सवार मौन भी बोलने लगा था
—महाराज! आज इतनी ऊँचाई पर क्यों सजाई गई है मेरी सेज?
शबरी के लाडले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?
आज ये कहाँ से आ गई इन बाज़ुओं में इतनी ताक़त?
तुम्हारा गया हुआ अँगूठा वापस आ गया क्या?
सभी काल अभी मौन की जेब में थे
रस्ता बहुत लंबा था
मेरे हाथ-पैर कंधे सब थक रहे थे
याद आ गए वे सारे हाथ
जो दान-पात्रों के चढ़ावों को गिनते-समेटते थक जाते
मेरे जंगल के साथी पेड़-पौधों ने मेरी थकान को समझ लिया था
उन सबने मेरे आगे अपनी छायाएँ बिछा दीं
मैं ग़मज़दा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय
पर रास्ते में ये कौन कैसे आ गया
कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया
...हाँ मैं अब एक दृश्य था
मैं सभ्यता के मध्याह्न में सूर्यग्रहण का एक दृश्य था
इस दृश्य को देखते ही आँखों की ज्योति चली जाती थी
अनगिनत आँखों का पानी भर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है
यह आँखों के लिए अक अपच्य दृश्य था
पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर
यह हमारी इक्कीसवीं सदी का दृश्य था
स्वजन-विसर्जन का आदिम कट-पेस्ट नहीं
जब धरती पर न कोई डॉक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार
यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में
पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था
ग्रहों के लिए छूटते हुए रॉकेटों को देख हमने तो यही समझा था
कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियाँ शुरू हो गई हैं
पर किसी भी दिल ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूँ
पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था
कि इंसानियत का शव लेकर गुफा की ओर
मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए
उन्हें जीवित आदमी का दर्जा दे दिया गया है1न्यूजीलैंड सरकार ने वानगनुई नदी को जीवित आदमी का दर्जा दे दिया है। नदी को क्षति पहुँचाने वाले पर उन्हीं धाराओं में मुक़दमा चलेगा जिन पर इंसान को नुक़सान पहुँचाने पर चलता है।
जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाए
कि दाना माँझी भी एक जीवित आदमी का नाम है
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आदिवासी दाना माँझी की पत्नी अमांग ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के भवानीपटना के एक अस्पताल में टीबी के इलाज के लिए भर्ती थी। उसके इलाज, उसकी मृत्यु व उसको ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था को लेकर तमाम आरोपों-सफ़ाइयों के बावजूद यह एक निर्विवाद सत्य है कि दाना माँझी को अपनी पत्नी के शव को कई किलोमीटर तक अपने कंधे पर ले जाते हुए दुनिया ने देखा। साथ में उसकी ग्यारह वर्षीय बेटी चौला थी।
- रचनाकार : हरीशचंद्र पांडे
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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