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थार की बात

thar ki baat

प्रमिला शंकर

प्रमिला शंकर

थार की बात

प्रमिला शंकर

बात तब की है...

जब थार प्यासा था

रूखा था रसहीन था

तब...

राग रीत

गीत प्रीत

सारंगी पूँगी

भपंग मोरचंग

सुरिंदा शहनाई

रावणहत्था अलगोजा

जोग जोगणियाँ

तब थार की धरती बंजर थी

रोटी पानी था जीवन था

सूखे हलक़ में गीत अटकते थे

राग भूखी गीत प्यासे थे

जीवन तब मात्र अभाव को जानता था

पालती तो तब भी थी धरती अपनी

संतान को...!

पर एक अभावग्रस्त माँ की तरह

थार आत्मीय था प्राणियों के प्रति

दिन जलते थे पर रातें ठंडी होती थी

उन ठंडी रातों में अपने पाँवों के छालों को सहलाकर...

सूरज को द्वार पर खड़ा पाकर

कितने ही

पग चल पड़ते थे

रोटी की जुगाड़ में

पानी का रंग और रोटी का स्वाद

दोनों दुर्लभ थे

लोग बालू में जलते पाँवों से तलाश करते थे

बस रोटी और पानी

अपने अंचल के प्रति उनमें

कृतज्ञता थी

चुगली या बुराई नहीं

जानते थे कि दूर के रम्य

भूधर कभी भी ढह जाएँगे

दिखावटी ज्योतिपुंज

बस नाम के शेष रह जाएँगे

इसलिए उस कठिन दौर में भी जो

छोड़कर नहीं गए अपनी धरती को

थार उनके लिए आत्मीय था और

धरती उपकृत...

पानी बरसा

प्रकृति मेहरबान हुई

धीरे-धीरे धरती भीगी तब

कथाएँ जन्मीं

गाथाएँ गूँजीं

वाद्ययंत्र बने तान बनी

गीतों को नए नाम मिले

राग और रंग मिले

अरणी करिया झेडर गोरबंद

रायचंद को राग मिली

चिरमी हिचकी मूमल कुरजाँ को

केसरिया रंग मिले

अखूट खान-पान मिला

धन-दौलत मिली

अक्षयनिधि और गौरव के गान मिले

भव्य भावों के उपहार मिले

स्रोत :
  • रचनाकार : प्रमिला शंकर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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