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थक कर मन मेरा

thak kar man mera

शचींद्र आर्य

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शचींद्र आर्य

थक कर मन मेरा

शचींद्र आर्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    थक कर लोग क्या-क्या करते होंगे,

    इसकी कोई फ़ेहरिस्त नहीं बनाने जा रहा।

    बस ऐसे ही सोच रहा था, थकना कैसी क्रिया है?

    यह स्वतः घटित हो जाने वाली परिघटना है,

    या किसी ऐतिहासिक अंतरक्रिया से उत्पन्न घटक का प्रदर्शित रूप है?

    क्या इसे समझने के लिए कोई प्रयास किया जाना चाहिए?

    मुझे लगा, इन बातों को समझने के लिए किसी भी तरह की कोशिश करना बेवक़ूफ़ी है।

    इन्हें समझने के तरीक़े भी उतने ही अपने होंगे, जितने कि तुम्हारी मेरी परछाईं।

    रातें हमेशा लट्टू की रौशनी में हों यह मुमकिन नहीं है।

    वहाँ कैसी होती होंगी,

    जहाँ समुद्र की लहरों की आवाज़ों से आसमान फटा जाता होगा?

    और वहाँ,

    जहाँ ढबरी की झिलमिल-झिलमिल करती लौ में कोई लेटा,

    धुएँ में अपने कल की गंध लेता मसेहरी में धँसा चला जाता होगा?

    उसके सपनों में भी आवाज़ें नहीं होंगी।

    वहाँ रील काले-सफ़ेद रंगों से दृश्यों को रँग रही होगी।

    उसे काले घोड़े के सफ़ेद फर वाले मुलायम बाल बहुत पसंद थे,

    ऐसा उसने कभी बताया था मुझे।

    नानपारा में एक पान की आकृति वाला पक्का तालाब भी है।

    देखना कभी।

    बिलकुल ऐसी ही बातें कहीं किसी दिमाग़ में दर्ज़ नहीं होंगी।

    वह लड़की जो यह सब जानती है, वह अब मेरी बीवी है।

    वह भी अब उन बीती रातों को देखे जुगनुओं की कहानी कहने लगेगी।

    उसे भी गोबर के कंडों की महक इस शहर से कहीं बाहर धकेल देगी।

    वह भी यहाँ से वापस लौट जाना चाहेगी। मेरी तरह।

    पर हम दोनों एक-दूसरे की परछाईं बन चुके होंगे।

    हम कहीं इस टीन वाली छत को छोड़ कर नहीं जाएँगे।

    बाहर बर्फ़ गिरने लगेगी। रूई की तरह नर्म फ़ाहों वाली बर्फ़।

    नाज़ुक-सी। अनछुई-सी। हम थम जाएँगे।

    फिर एकदम हम उस तपते रेगिस्तान में कहीं

    बारिश की बूँदों को ढूँढ़ते सियार की बातों में गए होंगे।

    उसने कहीं घास के मैदानों में पुआल वाले बिस्तरों की ख़ूबी

    बताकर हमसे हमारे सपने छीन लिए होंगे।

    मैं भी उसके पीछे भागते-भागते सियार बन जाऊँगा।

    तुम हिरण बनकर वैदही को दिख जाओगी।

    वह अपने मन में कुछ रोते हुए उस कहानी को याद करेगी,

    और इस पल को भूल जाने का अभिनय करते हुए, उस

    नायक पति के धनुष से निकला तीर बनकर तुम्हें जा लगेगा।

    तुम मेरा स्पर्श महसूस करते ही मेरी उँगली पकड़ ऐसे दौड़ पड़ोगी

    जैसे वह दुबली चींटी जो सबसे आगे थी, तुम उससे भी आगे बढ़ जाओगी।

    ऐसे होने पर वह मृगनयनी नायक कभी हमें अपनी आँखों से हमें देख भी नहीं पाएगा।

    तब से मसेहरी पर लेटे-लेटे मेरे सपनों में कई सारे सपने इधर-उधर हो चुके हैं।

    जब कुछ समझ नहीं आया, तब मैंने उस लिखने वाले बूढ़े को बताया।

    कैसे वह नायक हमें देख नहीं पाया। कैसे हम आँखों से ओझल होकर ग़ायब हो गए।

    उसने कहा है, वह दोबारा इस कहानी को दुरुस्त करेगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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