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एक बदनाम कवि की डायरी

ek badnam kavi ki Dayri

अनादि सूफ़ी

अनादि सूफ़ी

एक बदनाम कवि की डायरी

अनादि सूफ़ी

मुझे नदी और जंगल पसंद हैं

पहाड़ मुझे ज़्यादा अच्छे नहीं लगते

आदमी बेवजह छोटा महसूस करता है

मुझे रेल की पटरियाँ और धान के खेत अच्छे लगते हैं

समंदर मुझे पसंद नहीं

मन पर एक अहंकार चढ़ने लगता है

मेहनत-कश लोग और दाना चुगते पंछियों से प्रेम है मुझे

पर पुल पर खड़ा

आसमान की तरफ़ मुँह उठाकर

औल-फ़ौल बकता

जिबरिश में हुआ-हुआ करता आदमी मुझे नहीं जँचता

बेकार में मनुष्य होने पर क्षोभ होने लगता है।

मंदिर की घंटियाँ

मस्जिद से अज़ान सुकून देती हैं रूह को

पर नारों में तब्दील होते ईश्वर के नाम से ऊब होती है मुझे

आदमी ख़्वा-मख़ाह शैतान लगने लगता है

अच्छा लगता है मुझे अजनबी लोगों से बोलना-बतियाना

किसी पेड़ के तने से सटकर चुपचाप बैठे रहना भी अच्छा लगता है

पर अच्छा नहीं लगता जब ज़रूरत ना हो फिर भी बोलते रहना

और जहाँ बोलना ज़रूरी हो वहाँ चुप रह जाना

कि कवि फिर उन बातों के लिए बदनाम नहीं होते

जिनके लिए उन्हें होना चाहिए

हाँ, कवि को बदनाम होना चाहिए!

स्रोत :
  • रचनाकार : अनादि सूफ़ी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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