बहन

bahan

अमर दलपुरा

बहनें जब घरों से दूर जाती हैं

दूर तक रोती हैं

उनके रोने की आवाज़

मेह की तरह बरसती है

उनके होने की जगह

कई दिनों तक भरी रहती

कुछ दिनों बाद

उनकी रुलाइयों का कोरस

घरों में रहता बाहर

मेरी बहन के विदा होने का दिन

जाने कैसा दिन था

मैं उस दिन पड़ोस के घर में देख रहा था टीवी

विधवा होने के दिन को

कैसे दिन कहा जा सकता

मैं नहीं था उसके कोसों आस-पास

वह कितने दिनों तक

ज़ोर-ज़ोर से रोती रही—

मेरा राम चला गया

मेरे प्राण क्यों नहीं गए

कैसी-कैसी बातें कहती रही मेरी बहन

मेरे पास कहने लिए क्या बचा था

जो जीने के लिए दूसरा मन देता

पहाड़ जैसे दुखों को कुछ नहीं में बदल देता

अब उसने रोने का एक नया संसार रच लिया

घर के किसी कोने में बैठी रहती है चुपचाप

जब किसी की मृत्यु होती है

स्त्रियाँ रोती हुई आती हैं

मेरी बहन उन्हें ऐसे देखती है

जैसे ऐसे रोना भी नहीं बचा है उसके भाग्य में

और किस बात के लिए कब तक रोया जाए

जीने का यह संसार चलता रहता है

किसी के जीवित रहने की याद भी

ज़्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहती

स्रोत :
  • रचनाकार : अमर दलपुरा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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