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तर्पण

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मनोज शर्मा

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और अधिकमनोज शर्मा

    हे नंदिनी, शिवामृता, लोकधात्री, मंगला

    हे आनंदरूपिणी

    हे श्वेत-छत्रधारिणी

    जीवन अंनत

    अंनत का कैसा अंत

    चुप्पी ज्वलंत

    उमंग-पात झरते जाते हैं...

    हे सब अवयवों से उच्च

    हे मुक्ति, भोग-उपभोग जननि

    चहुँ ओर अंतरतम का क्रंदन

    सब अस्त-ध्वस्त

    नीर का हाहाकार

    आतुर पुकार...

    असंख्य शव

    गूँजा नहीं शंख

    कातर सभी, बिना संस्कार

    छोड़े, बहाए, दबाए, आपके ही पास

    हे भगीरथी

    कफ़न तक नहीं मृत शरीरों पे

    रहे होंगे, कभी जो ख़ास

    हे आनंदरूपिणी

    मृतकों के लाखों परिवार

    खुलकर नहीं कर पाए विलाप

    कि ख़तरा खड़ा रहा आस-पास...

    हे मुक्ता मणिधारिणी

    लाखों कंठों में

    फँस-धँस रह गया है गरल

    नहीं-नहीं, यह कोई समर नहीं है

    फिर भी धूल-धूसर हैं दिशाएँ

    चीत्कार फैला है

    अचीन्हे शवों का दिख ही नहीं रहा

    कोई वारिस

    हे सभी अवयवों से उच्च

    हे पाविनी, तारिणी

    इन्हें मुक्त करें

    इन शवों की दुर्दशा

    हमारी महान संस्कृति को लगा शाप है

    मृत्यु वरण नहीं है

    मृत्यु उल्लास भी नहीं

    मृत्यु सदा आँकड़ों पे हँसती आई है

    जीवन की पुनरावृत्ति भी है

    मृत्यु ही

    हे भद्रे

    आपके पावन जल में

    फेंक दी गईं देहें जो

    क्या जीवन चाहेंगी फिर से कभी...

    कि उन्हें जगह ही नहीं मिली शमशान में

    महँगे अंतिम संस्कार में

    मंडरा रहे हैं कौवे, चीलें

    नोच खा रहे हैं कुत्ते

    क्षत-विक्षत शव

    हे माँ,

    जो जीवन मृत कर दिए गए

    जिन्हें आपकी धारा में धकेल दिया गया

    वहाँ कई कर रहे हैं विलाप

    और उन्हीं देशवासियों की ओर से

    मैं इस पवित्र जल में

    पुष्प अर्पित करता हूँ

    हे मंगलकारिणी;

    ‘देवि सुरेश्वरी भगवती गंगे

    त्रिभुवनतारिणी तरल तरंगे’,

    मंत्र पढ़ता कर रहा हूँ

    उन सभी की ओर से

    तर्पण!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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