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तमाशा

tamasha

अनुवाद : इबोहल सिंह काड़्जम

रतन थियाम

अन्य

अन्य

रतन थियाम

तमाशा

रतन थियाम

और अधिकरतन थियाम

    अँतड़ियाँ बाहर निकलने से जुड़ सकने वाले

    लगातर गीले फोड़े पर बैठी मक्खी

    आँख मूँदकर दार्शनिक की तरह सोचती है

    आदमी की तो अँतड़ियाँ निकल आई

    पृथ्वी की?

    स्वाद चखने के नशे से मुग्ध

    वह लँगड़ी मक्खी फिर भी संसार की

    सुगंध से तृप्त होकर दुर्गंध को ढूँढ़ने लगी।

    सोचा उसने उभरे टीले पर बैठकर

    क्या फटने से समाप्त होगी

    क्या विस्फोट होने से अंत होगा?

    पृथ्वी।

    अंत तो ज़रूर होगा

    तमाशा अंतहीन नहीं होता

    छोटे-लंबे की बात है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक मणिपुरी कविताएँ (पृष्ठ 77)
    • संपादक : देवराज
    • रचनाकार : रतनकुमार थियाम
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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