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जंगलों का गीत

janglon ka geet

मान्युएल बान्दैरा

अन्य

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मान्युएल बान्दैरा

जंगलों का गीत

मान्युएल बान्दैरा

और अधिकमान्युएल बान्दैरा

    ये हवाओं में काँपते हुए जंगल हैं

    झूम रहे हैं, काँप रहे हैं, बाँहें झकझोर रहे हैं

    इस सिरे से उस सिरे तक

    आज जंगल कुछ बोलना चाहते हैं

    और वह चीख़ते हैं, सिसकते हैं, सिर धुनते हैं,

    जैसे किसी दुःखांत नाटक की कोई अभिनेत्री!

    हर विद्रोही शाख़ में वही तड़प है

    हरेक में वही छिपा हुआ भय

    या वे शायद कोई चीज़ माँग रहे हैं

    कौन-सी है वह चीज़!

    इन जंगलों में भी चेतना है? वे क्या माँग रहे हैं

    क्या वे पानी माँग रहे हैं;

    किंतु अभी तो पानी का सैलाब आया था

    जिसने पूरे जंगल को झकझोर दिया था

    सैकड़ों पेड़ उखाड़ दिए थे, निर्भयता से

    क्या वे युगों पुराने कूड़े को भस्म कर देने के लिए

    पवित्र आग की माँग पेश कर रहे थे

    या वे कुछ माँग नहीं रहे हैं

    केवल बोलना चाहते हैं

    और बोल नहीं पाते!

    क्या उन्होंने अपनी सुकुमार जड़ों के कानों से

    धरती की पर्तों में छिपा कोई भेद पा लिया है

    ये जंगल हवाओं में काँप रहे हैं, झूम रहे हैं

    तड़प रहे हैं,

    ये जंगल किसी सन्निपात-ग्रस्त जनता की भीड़ की तरह है!

    सिर्फ़ छोटे सुकुमार बाँसों का एक

    छोटा-सा कुंज अलग खड़ा

    धीमे-धीमे झूम रहा है,

    जैसे इस जनव्यापी पागलपन पर मुसकरा रहा हो

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 346)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : मान्युएल बान्दैरा
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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