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जाड़े की एक रात

jaDe ki ek raat

टॉमस ट्रांसट्रोमर

अन्य

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जाड़े की एक रात

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    अंधड़ रख देता है अपने ओंठ हमारे घर पर

    और मारता फूँक ज़ोर से सुर निकालने।

    सोते में बेचैन करवटें बदल रहा मैं

    मुँदी आँख, पढ़ता अंधड़ का पाठ।

    बच्चे की आँखें हैं लेकिन घुप्प अँधेरे में विस्फारित

    बच्चे को लगता, पुकार है यह अंधड़ की।

    दोनों को है शौक़ झूलती रोशनियों का

    दोनों की ज़ुबान अब भी अटपटी, तोतली।

    बचकाने हैं पंख और बाँहें अंधड़ की

    तेज़ी से कारवाँ उड़ रहा मैदानों को

    घर करता महसूस कील-कब्ज़ों का अपना तारामंडल

    थामे अब तक है जो उसकी दीवारों को।

    रात यहाँ चुपचाप पड़ी है घर में

    जहाँ पुरानी सभी आहटें, भूली-बिसरी

    निश्चल पड़ी हुई हैं जैसे किसी झील में डूबे पत्ते

    बेक़ाबू है रात वही पर बाहर।

    इससे भी गहरा अंधड़ है नाच रहा पृथ्वी पर

    उसका मुख है जुड़ा हमारी आत्मा से ही

    फूँक रहा वह सुर निकालने। हम डरते हैं

    जड़ से उखड़ जाएँ कहीं हम, सुर मिट जाए सदा-सदा को।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 339)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : टॉमस ट्रांसट्रोमर
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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