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छुट्टियों में धूप

chhuttiyon mein dhoop

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

गुरु महांति

गुरु महांति

छुट्टियों में धूप

गुरु महांति

पछोटे धान के तुष छा जाते आकाश में

हलद सरसों की क्यारी में

अश्वत्थ की धूप, सुने खजूर के

पछोटे धान के तुष पर।

नरम आकाश और लाल कुईं

सुनसान केवड़े की बालू पर

सुने जोहड़ के पानी

सूने नील सेवार पर

हलद इस दुपहर में।

क्लांति मेरी धुल जाए सूनी नरम धूप में

कजलौटे की पुकार में धूप

लाल बटफल, बेर, खजूर में

ढलान में ऊबड़-खाबड़

और सफ़ेद बालूचर में धूप

देह मेरी धुल जाए

घास, पलकें नरम धूप में।

पछोटे धान के तुष छा जाते आकाश में

छा जाते आकाश में काँच और

चमकते पन्नी के काग़ज़ में

दुकान की सीढ़ी पर पन्नी और काग़ज़ी धूप...

तुम्हारे और मेरे बीच चाय, कॉफ़ी, काँच के गिलास

छोटी-छोटी चम्मच में आशंका और अफ़सोस

जीवन की क्लांति कितनी करुण और प्राणों का दर्द।

तुम्हारे मन की क्लांति यदि धुल जाती

टेबुल पर नरम धूप में

हलद चाय, कॉफ़ी, शरबत की दुकान पर धूप में,

हमारा यह राह चलना, पूजा की छुट्टियाँ

एक-एक रविवार

अटूट धूप और दुपहर की अवसन्न आसक्ति में।

शायद तुम और मैं प्राचीन—इस पृथ्वी के इस क्षितिज पर

प्राचीन धूप की राह पहचान

अपनी दिशा और अपनी राह फिर पाएँगे वापस

राह फिर पाएँगे वापस

नरम धूप के मेघ

धान की नरम धूप

जीवन के हलद नन्हें-नन्हें पलों की

आकस्मिक देह में।

पछोटे धान के तुष छा जाते आकाश में

कजलौटे की आवाज़ में धूप सुनसान बालूचर की धूप

अतः आज बुला लेती शहर का रेल पुल लाँघ

तुम्हें छुट्टियों की धूप फटे पत्तों की बालूचर धूप

चुपचाप बालूचर, गाँव का स्कूल

पोस्टमैन की साइकल की घंटी

कवर बस्ती की ढेंकुली चुपचाप,

कपड़े नहीं धोबीघाट की ओर

गुरुवार के माँडने, नहीं माणबसा की हुलुध्वनि

या सास-बहू की कलह

सुनसान तुम्हारा गाँव, हमारा गाँव

उदास इस श्रीहीन धूप में।

हलद दुपहर की लू-लवार, सेवार की धूप

सूने सफ़ेद बगुले, घास और नरम आकाश

पछोटे धान के तुष उड़ जाए आकाश के उस पार

तुम्हारी मेरी यह चाय-कॉफ़ी की प्यास

और पूजा छुट्टियाँ, गरमी की छुट्टियाँ

खोखली यह सुनी धूप और आकाश।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 89)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : गुरुप्रसाद महांति
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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