सुनो प्रियंवदा!

suno priyanvda!

जयंत शुक्ला

जयंत शुक्ला

सुनो प्रियंवदा!

जयंत शुक्ला

और अधिकजयंत शुक्ला

    सुनो प्रियंवदा।

    तुम अभी ही तो मिली हो

    क्या कहूँ तुमसे?

    कर भी दूँ अपने बेढंग में

    तो भी तुम समझोगी नहीं (जानबूझकर)

    मैं तो फिर एक पत्र लिखने बैठ गया हूँ

    भेजूँगा तो क़तई नहीं,

    सबको पढ़ाऊँगा ज़रूर।

    और फिर यह नाम भी कितना बेहतर है

    प्रियंवदा! तुम्हारी ही तरह...

    या तुम्हें जो नाम दे दिया, वही सुंदर हो गया।

    मैं फिर राग-विराग में उतर रहा हूँ,

    अच्छा नहीं है यूँ चलना

    मैं जानता हूँ मेरी दोस्त!

    पर जो हूँ, वो कैसे बना रहूँ,

    जबकि जानता हूँ कि ग़लत नहीं मैं।

    तुम्हारी सारी बातें मान ली गईं हैं

    बाल अपने मन से कटवा लिए हैं

    मानता हूँ, ग़लती की

    नया क़ुर्ता नहीं लिया, समझता हूँ

    ये शायद ठीक नहीं है,

    पर ज़िंदगी की तरफ़ अपनी बेध्यानी

    अब कम कर रहा हूँ।

    वसंत पच्चमी रही है,

    सरस्वती! अब समझ लेना (कोशिश करना)

    मैं अपनी बेढंगी में ही बता सकता हूँ

    कुछ उपमाओं से सजा सकता हूँ

    मेरे पास और कुछ नहीं,

    अभी, शायद तुम भी नहीं।

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