भगवान बनो एक बार
मीन अवतार
सागर की नील लहरों पर
तैरकर मेरी देह पर
चिलकते छिलकों और
मेरी आँख की नील ज्योति
अनंत काल की।
यह देह खेलती फिरे
करुणा जल में,
प्रलय पयोधि और
वट पत्र पर,
देखते ही नील जल,
सिर्फ़ नील जल,
सजल नयन और
सागर का जल।
देखता रहूँ बार-बार
हे चिर सुंदर
भिंगोकर मेरी पलकें
लोनी सागर की हवा में!
हालाँकि लहर आएगी
अनंत काल की, कीड़े, केवड़ा
और हिरन की, हे देवता मुझे दो
उजाला-अँधेरा
मेरी आँखों की नील ज्योति
सात पीढ़ी की।
नदी का कछार, बालू का ढूह
उदास दुपहर
मेरी का पार्क और
झाऊ जंगल के
बहाव में नाचता
अबोध पवन
द्वापर के कृष्ण और
मेरे मन का चाँद
कमरे में कितने सपने!
कितने अपराह्न
मत्स्यगंधा हास और
मेरी पिंगला का मन।
यह सब गुमता एक दिन
सोने की डिबिया में
मछुवारिन की नथ तले
सात ताल नीचे।
तब हे देवता!
हे चकाडोला!
मेरी देह में बिजली खिलती
कितना मैं बोला ?
मैं बन जाता पालतू मछली
आकाश का तारा।
तुम्हारा बनाया राधाचक्र
सच कितना ऊँचा
कच्चा ही घट और
मत्स्य भी कच्चा।
डाल पर कभी एकांत पहर में
चेलीतोल नीलाद्रि या काम्यक वन में।
शांब का यह नारी वेश
फिर बोझ मेरी पीठ पर,
मेरी आँख में प्यास
सब तो लीला तुम्हारी,
हे चकाडोला
कटक में तूफ़ान
फिर आकाश में तारा!
एक पाद गति यदि
आपके वृषभ की
मेरी पिंगल पुतलियाँ
पुकार देती, कितने स्वप्न
कितने शीत के सूने पहर।
देखते सब, सब सुनते
हे चकाडोला,
समय भी कहानी कहता,
एक तारा सो तारा
विस्मृति की भोर में
उड़ता, बैठता, पंख फड़फड़ाता
लोटन कबूतर मेरा।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 130)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : शरतचंद्र प्रधान
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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