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अविभक्त

awibhakt

विश्वंभरनाथ उपाध्याय

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और अधिकविश्वंभरनाथ उपाध्याय

    सोचा था कारागार में अब की बार जो दरवाज़ा बन गया है

    बूटे से क़द वाला, दमदार

    उसमें से निकल कर

    मुक्त और उन्मत्त हो जाऊँगा

    हमेशा के लिए!

    जब-जब क़ैद होगी

    वह द्वार दीवाल में

    खिंच जाएगा स्वतः

    और मैं इस उद्धारी मार्ग को

    कंधे पर टाँगे चलता रहूँगा पस्त हाथी-सा

    हादसों के कीड़े-पतंगे उड़ाता हुआ कानों से

    लेकिन यह दरवज्जा भी अजीब है

    कभी लगता है कि है

    कभी नहीं है

    अभी अभी वह बुला रहा था अपनी तरफ़

    चौखटें चटखाता हुआ

    भित्ति में क्रमशः बढ़ते आयत सा

    चमकता चारभुज वह!

    ...मेरे पास जो था,

    जी और जहान

    सब लगा दिया उसके दाँव पर

    बहुत दौड़ा, बहुत धड़धड़ाया

    अपने इंजिनों को

    अंततः भस्स हो गया इस निर्दय फ़र्श पर

    सरक रहा हूँ अब

    स्वकल्पित संधि की टोह में!

    बार-बार चोट खाकर किसमें ताब है

    जो झन्ना जाए ताँबे के तीतर-सा

    अंततः फूल-सी तबीयत है मेरी

    परागी मन है

    मक्खन-सा पिघलता हूँ

    हज़ार कोस पर जलती दीपिका से

    एकनिष्ठ ज्योति, शून्य को तलती हुई!

    मैं इतना मतवाला तो अब भी हूँ

    कि द्वारसहित द्वारिका चला जाऊँ

    मगर कहीं गवाक्ष था

    गंतव्य

    मतिभ्रम में उदित एक असत् विकल्प था

    धिक्कार है इस आभास पर

    लानत है थू है।

    इतना शक, इतना अविश्वास, इतना भय

    मैं किसी खुले मकान में नहीं रहा कभी

    जो वातायनों में वातास को बुला कर

    उसके साथ कनसुनी करता है

    मैं जो इस तिलिस्म के भुंइहो में फेंका गया

    एक रँगरूट भेदिया हूँ

    जो हवाहीन इस गढ़े में

    कोई दरार ढूँढ़ रहा है

    दम घुट रहा है और उँगलियाँ घायल हैं।

    कहीं कोई पेच होगा ज़रूर

    कोई खटका

    जिनकी बलि दे दी गई,

    उनके ख़ून से लिखी हुई

    वह किताब भी तो होगी कहीं

    अँधरे मे अंधे की तरह टटोलते-टटोलते

    संभव है दीवाल परदे-सी हट जाए

    कोई यार-ऐयार फुसफुसाए

    इसलिए रक्त वमन करते पोरों से

    पत्थरों को सहला रहा हूँ

    जाने कब से!

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 101)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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