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जो कहा नहीं गया

jo kaha nahin gaya

अज्ञेय

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अज्ञेय

जो कहा नहीं गया

अज्ञेय

और अधिकअज्ञेय

    है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया।

    उठी एक किरण, धाई, क्षितिज को नाप गई,

    सुख की स्मिति कसक भरी, निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,

    बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।

    अधूरी हो, पर सहज थी अनुभूति :

    मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई—

    फिर मुझे बेसबरे से रहा नहीं गया।

    पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।

    निर्विकार मरु तक को सींचा है

    तो क्या? नदी-ताले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है

    तो क्या? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,

    इसी अहंकार के मारे

    अंधकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ

    उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया।

    इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया।

    शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं

    पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।

    शायद केवल इतना ही : जो दर्द है

    वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।

    तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 63)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1997

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