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नीलकंठ

nilkanth

नेहा अपराजिता

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    हे नीलकंठ!

    तुम्हारे स्मरण से

    विस्मृत हो उठती हैं

    वह सभी स्मृतियाँ

    जिनसे भरता है मन में विष

    हे विषधर!

    सबके मन का विषहर

    तुम्हें कंठ में

    जिस अनंत पीड़ा का अनुभव हुआ

    उसी ने तुमको सबका नाथ बना दिया

    हे नटराजन!

    तुम्हारे नृत्य से ही

    उत्पन्न हुई होगी

    इस क्षणभंगुर सृष्टि में जिजीविषा

    हे भस्मरमैया!

    मसान की धूनी में रमे तुम

    खोल देते हो द्वार

    हर लालसा हर इच्छा से मुक्ति का

    हे गंगाधर!

    तुम जन्म से मुक्ति तक के

    हर मार्ग के संतुलन का प्रतीक बन चुके हो

    तुमने एक स्त्री के हठ

    पर उसके वेग को

    अपनी जटा में स्थान दे दिया

    हे शंभू!

    तुमने एक स्त्री के हठ पर

    गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया

    एक स्त्री के वियोग में

    दसों दिशाओं और

    तीनों लोकों में घूम-घूमकर चीत्कार भरी

    एक स्त्री के क्रोध को

    अपनी छाती में उतरने का स्थान दिया

    इसलिए तो

    तुम्हें अर्धांगिनी स्वरूप 'आदिशक्ति' प्राप्त हुईं

    हे भोलेनाथ!

    इसलिए तो

    तुम्हें स्त्रियों ने

    अपना गुरु मान रखा है

    जो तुमसे प्रेम करें

    वह कभी मुक्त हो ही नहीं सकता!

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहा अपराजिता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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