शव दाह

shav daah

राजीव कुमार तिवारी

शव दाह

भी एक कला है

अनुभव से

कुछ लोग

निपुण हो जाते हैं इसमें

दाह संस्कारों में

स्वजनों के

सामाजिक सरोकारों से

जुड़े लोगों के

इन कला निपुणों के

आने की

भरसक

प्रतीक्षा की जाती है

संबंध समाज

कहीं कोई मृत्यु घटित हो

प्रायः बिना बुलाए भी

पहुँच ही जाते हैं

अंतिम यात्रा के

ये सहयात्री

मृतक से अपना

राग-द्वेष भूलाकर

धू-धूकर जल गया जो

भाग्यशाली बताया जाता है उसे

वे भरसक सहायक होते हैं

लकड़ी

पूरी तरह सूखी

होनी चाहिए

बड़े टुकड़ों के साथ

कुछ छोटे और पतले टुकड़े भी

हों तो अच्छा है

कर्पूर घृत गाय का दूध

चंदन की लड़की

तुलसी पीपल

अगरबत्ती बाँस की चचरी

मूँज की रस्सी

राम नामी चादर

धान का लावा

लूटाने के पैसे

और भी ढेर सारी

ज़रूरी चीज़ों का

जुटाव करा लेते हैं वे

दाह कर्म शुरू होने के पूर्व ही

एक बार सुलग जाती है जब चिता

धू-धूकर जलने लगती है

फिर दहन की निरंतरता को

बनाए रखने के लिए

अनेक तरह से उद्यम करते हैं वे

कभी बाँस लेकर

शव के ऊपर नीचे रखी लकड़ी को

थोड़ा बहुत हिलाते-डुलाते हैं

ज़रूरत समझने पर

लकड़ियों के और टुकड़े डालते हैं

घृत कर्पूर डालकर

लहक बनाए रखते हैं

चिता की

शव पर चढ़ गए कार्बन को भी

पीट-पीट कर झाड़ते हैं

जब फूँक देते हैं

शव को मुट्ठी भर भस्म में

एक संतोष भाव लिख जाता है

चेहरे पे उनके भी

जिसे सहज ही

पढ़ सकता है कोई भी।

स्रोत :
  • रचनाकार : राजीव कुमार तिवारी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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