Font by Mehr Nastaliq Web

शंकरविजय नाटक

shankarawijay natk

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

मथुराप्रसाद दीक्षित

मथुराप्रसाद दीक्षित

शंकरविजय नाटक

मथुराप्रसाद दीक्षित

मेरे हृदय की कोई प्रकाशमान ज्योति अपने अंतःकरण में स्थित ब्रह्म

में लीन हो रही है—चमकते हुए हज़ार सूर्यों से भी अधिक उसका प्रकाश है,

सर्वत्र समान रूप से वह परिव्याप्त है, आत्मानंद के समुद्र की चंचल लहरों

के समान वह सदा प्रकट होती है, अद्वैत ब्रह्म की वह वाहिका है तथा परम

सुखदात्री एवं सत्-चित्-स्वरूपा सर्वव्यापिनी है।

अहो, मेरे चित्त में सच्चिदानंदमयी यह कौन-सी चमत्कृति है, जिसने

अद्भुत रूप से अपना प्रकाश चारों ओर फैलाकर सब-कुछ प्रकाशित कर

दिया है। उस प्रकाश में लोकालोक (सातों समुद्रों को परिवेष्टित करने वाली

पौराणिक पर्वत-श्रेणी) के अंतर्गत पदार्थों का सारा समुदाय स्पष्ट उद्भासित

हो रहा है। हे भगवन् , संसार से निकाले जाने पर अब मैं ज्ञान-समुद्र में

डुबकी लगा रहा हूँ, मेरी रक्षा कीजिए।

पारस्परिक मत-भेद के कारण संसार में प्रतिदिन अनेक सिद्धांत पैदा

होते रहते हैं, जिससे लोग औरों के साथ कलह करते हुए घूमते-फिरते हैं।

इस वैर के प्रभाव से उनके अनुयायी पृथक् हो जाते हैं, उनका सौहार्द-भाव

मिट जाता है। जो लोग अपने सिद्धांत की सिद्धि के लिए अपने-पराए का

विचार छोड़ देते हैं, वे सब एकमत हो जाएँ।

स्वर्ग है, मोक्ष है, नरक है, पुण्य है, पाप है और जीव

तथा उसके गुण ही हैं। तब गुणी ही कैसे भिन्न भाव वाला हो सकता है?

आप लोगों की इष्ट-सिद्धि के लिए प्रत्यक्ष के अतिरिक्त और कोई प्रमाण ही

नहीं है, क्योंकि यह स्पष्ट है कि अनुमान-प्रमाण बाधादि दोषों से युक्त है।

वसिष्ठ आदि मंत्रद्रष्टा ऋषि तपस्या करते-करते चले गए, यह हमें

पूर्वजों के व्यवहार से ही ज्ञात होता है, ऐसा क्यों नहीं मानते! यह आम है,

यह कलश है, यह वस्त्र है, इसे सिद्ध करने में तुम क्या प्रमाण दोगे? यही

कहोगे कि इसमें व्यवहार ही प्रमाण है। तब यहाँ भी तुम व्यवहार को ही

प्रमाण मानो।

बौद्ध गुरु के वचनों में भी तुम लोग बुद्धि के कारण परस्पर मतभेद

रखने लगे—कुछ तो सर्वास्तिवाद को मानने लगे, दूसरों ने विज्ञान के सार-तत्त्व

का आश्रय लिया, औरों ने सब पदार्थों के समूह में शून्यवाद का सहारा

लिया, किंतु विचार की कसौटी पर कसे जाने पर ये सब अपने

आप छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

भारत में पुनः ब्राह्मण रहस्य-सहित वेदों में निपुण हों तथा शस्त्रास्त्रों के

निर्माता बनें, राजा गण भी नीतिमान् एवं पुण्यशील बनकर नीति के अनुसार

प्रजा का पालन करें, विद्वान् द्वेष-रहित हों, बनिये चतुर और गो-रक्षक बनें

तथा शूद्र सुखी और शिल्पकलाओं में कुशल हों।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 529)
  • रचनाकार : मथुराप्रसाद दीक्षित
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1956

संबंधित विषय

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY