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शहर की पीठ

shahr ki peeth

प्रकृति करगेती

अन्य

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प्रकृति करगेती

शहर की पीठ

प्रकृति करगेती

और अधिकप्रकृति करगेती

    शहर की पीठ से

    एक रेल गुज़रती है

    पीठ पर ढेरों छाले हैं

    झुग्गियों के

    झोपड़ियों के

    और हैं कुछ नंगी दीवारें

    जिन पर इश्तहारों के घाँव पोते गए हैं

    जिनका दावा है कि

    शहर गुप्त रोगों से ग्रसित है

    जिन्हें कई डॉक्टर

    दुरुस्त करने का दम भरते हैं

    और दीवारों पर सलाह देते हैं :

    'नामर्द मर्द बनें, डॉ राणा से ज़रूर मिलें'

    शहर की पीठ से

    ये रेल नंगे कूल्हों तक पहुँचती है

    जो पटरियों पर एक क़तार में बैठे

    हग रहे होते हैं

    शायद इस इंतिज़ार में

    कि कोई मंत्री आएगा

    और स्वच्छता अभियान के चलते

    उनके कूल्हों को भी पोंछकर जाएगा

    पर नहीं,

    शायद फ़र्स्ट क्लास के कूपों में बैठे

    मंत्रियों के सामने

    स्मार्ट सिटी का ब्लूप्रिंट है

    जिस पर शहर का ये पिछवाड़ा

    कहीं भी अंकित नहीं

    और कूल्हे साफ़ करना उनका एजेंडा भी नहीं

    क्योंकि कूल्हे, पेड़ से गिरे पत्ते नहीं

    जिनके साथ सेल्फ़ी खिंचा

    ये कहा जा सके :

    “देखो मैं आज इनकी पोंछ के आया हूँ”

    तो क्या कूल्हों से ये कह दिया जाए

    कि वे चाहे कितनी ही

    नुमाइश कर लें अपनी,

    पर फ़र्स्ट क्लास की खिड़कियों के परदे

    मंत्रियों के ईमान की तरह

    उनके लिए हमेशा गिरे रहेंगे?

    और क्या हम अब मान लें

    कि शहर की पीठ और पिछवाड़ा

    शहर नहलाते वक़्त छूट ही जाएगा

    किसी का हाथ उस तक नहीं पहुँच पाएगा

    क्या हम मान लें

    कि शहर की इस पीठ

    और पिछवाड़े को मलने भी,

    अब कोई नहीं आएगा?

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकृति करगेती
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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