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संवादों की अवसन्नता

sanvadon ki avsannta

निधि अग्रवाल

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निधि अग्रवाल

संवादों की अवसन्नता

निधि अग्रवाल

और अधिकनिधि अग्रवाल

    शब्द आगे बढ़ते तो हैं

    लेकिन संशय के साथ

    जैसे उन्हें पूर्व में ही विदित हो कि

    जब दो लोगों के बीच का मौन

    अनसुना होने लग जाए

    तब शब्द भी अबल हो जाते हैं।

    यही कारण है कि

    बीच रास्ते में ही अब

    सब संवाद भर-भराकर गिर जाते हैं।

    यूँ भी शब्दों के अर्थ

    कहने वाले से अधिक

    सुनने वाले की मनोदशा पर

    निर्भर करते हैं

    पूर्व में अनेकों बार

    मेरी नासमझियों पर

    निष्कलुष ठहाका लगाते हुए तुमने

    अंक में भर कहा—पगली हो तुम!

    तब तुम्हारे सीने से टिक

    आँखें बंदकर दुनिया को बिसरा देना

    सबसे बड़ी समझदारी लगती थी।

    आज संवादों की अवसन्नता से

    आहत मन सोचता है कि

    काश तब खुली रखी होती आँखें

    या आज तुम्हारे तंज

    अधिक समझदार हो गई हो!

    सुनकर, उसी सहजता से

    तुम्हारे सीने में मुँह छुपा

    महसूस कर पाती

    तुम्हारे अधरों का कोमल स्पर्श,

    मौन के संगीत की कोई अनुगूँज

    दोनों को अब तक जाने से रोके है

    इस स्वर के भी निष्प्राण होने से पूर्व

    आओ मेरी आत्मा पर अंकित

    अपने सभी चिह्न वापस ले लो!

    राहें पृथक करने से पहले

    स्मृतियों का उचित बँटवारा

    आवश्यक जो है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निधि अग्रवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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