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संतरी बाहों में लिपटी सफ़ेदी

santri bahon mein lipti safedi

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

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आकृति विज्ञा 'अर्पण’

संतरी बाहों में लिपटी सफ़ेदी

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    संतरी बाहों में लिपटी सफ़ेदी

    बिखरन के साथ पसरती गंध 

    भोरे-भोर आँचल भर बटोरती जोगन 

    सजा देती है योगीराज की मूरत।

    बचे फूल खोंस लेती है बालों में 

    महक उठी है आत्मा 

    बज रही है कान्हा की बाँसुरी 

    नैन बहते जमुना सरीखे 

    मन मोरनी-सा निहाल 

    तुम याद रहे हो...

    तुम याद रहे हो कि 

    हरसिंगार में फूल आए हैं।

    तुम्हारे भी आँगने आए होंगे फूल...

    वो हरसिंगार जो खड़ा है 

    हमारी प्रीत की ज़मीन पर 

    जिसे पता है हमारी अनकही बातें

    जिसे आदत है तुम्हारे स्पर्श की

    जिसे भान है अपने पर्याय अहो औरतों तुमसे जग है

    पैमानों को ध्वस्त करो

    फुदक-फुदक के खाओ-पीओ 

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो

    हँसती हो तो लगता है कि

    गंगा मैया जारी हैं

    दुनिया की ये सारी ख़ुशियाँ

    देखो देन तुम्हारी हैं

    ख़ुशियों की तुम नदिया हो

    बिन कारन कष्ट सहो...

    फुदक-फुदक कर खाओ-पीओ

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो...

    मुस्क इया तुम्हरी सुन लो ना

    जैसे फूल खिलन को हो

    दोनो होठ सटे जैसे कि

    जमुना गंग मिलन को हो

    बाधाओं को ढाह चलो तुम

    अपने मन की राह चलो तुम

    टेंशन के अनगिनत किलों को

    मार पैर से ध्वस्त करो...

    फुदक-फुदक कर खाओ पीओ 

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो...

    खड़ी हुई तुम जहाँ सखी

    वहां से लाइन शुरू हुई

    पर्वत-सा साहस तुममे है

    तुम तुरुपन की ताग सुई

    चँहक रहे मन की संतूरी

    स्वस्थ रहो तुम यही ज़रूरी

    थाल सभी को बहुत परोसे

    अपनी थाली फस्ट करो...

    फुदक-फुदक कर खाओ-पीओ

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो

    तुम धरती के जैसी हो

    जहां सर्जना स्वयं सजे

    सारे राग भये नतमस्तक

    पायलिया जब जहाँ बजे

    जो होगा तुम हल कर लोगी

    पानी से बादल कर लोगी

    सब कुछ मुट्ठी के भीतर है

    जहाँ लगे ऐडजस्ट करो...

    फुदक-फुदक कर खाओ-पीओ

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो

    ख़ुद ही तुम अब डील करोगी

    अपनी वाली फील करोगी

    कैरेक्टर के सब प्रश्नो को

    मुसकाकर रीविल करोगी

    समय बड़े घावों का हल है

    ग़र हिम्मत साहस संबल है

    सब सिचुएशन आलराइट है

    चिल्ल अभी तुम जस्ट करो...

    फुदक-फुदक कर खाओ-पीओ

    व्यस्त रहो तुम मस्त रहो...

    हाँ पर्याय ही न! 

    बिखर कर बांचना हँसी के छंद

    जिसे देख खिल उठी आंखें 

    खो जाती है अपने संसार में।

    हाँ वह संसार 

    जहां सत्य है सार्वभौम 

    इस नदी का वरण करता महासागर

    पार करता है देह की देहरी।

    मिलन के गीत गा रहीं

    क्षितिज पर  मिलती आत्माएँ

    इस चाँदनी रात में 

    जमुना किनारे बैठा आँखों सा जोड़ा 

    निहार रहा है हरसिंगार के फूल 

    व्याकुल है जमुना नदी 

    तुम याद रहे हो...

    कि हरसिंगार में फूल आए हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आकृति विज्ञा 'अर्पण’
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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