संथाल परगना

santhal paragna

निर्मला पुतुल

निर्मला पुतुल

संथाल परगना

निर्मला पुतुल

संथाल परगना

अब नहीं रह गया संथाल परगना!

बहुत कम बचे रह गए हैं

अपनी भाषा और वेशभूषा में यहाँ के लोग

बाज़ार की तरफ़ भागते

सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहाँ

उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़

और कंक्रीट के पसरते जंगल में

खो गई है इसकी पहचान

कायापलट हो रही है इसकी

तीर-धनुष-माँदल-नगाड़ा-बाँसुरी

सब बटोर लिए जा रहे हैं लोक-संग्रहालय

समय की मुर्दागाड़ी में लाद कर

इसकी बेहतरी के लिए

कुकुरमुत्ते की तरह उगी संस्थाओं में

तथाकथित समाज-सेवक हैं

अफ़सर हैं, चमचे हैं, ठेकेदार हैं, बिचौलिए हैं

और वे सबके सब

हाथों में खुली रंगीन बोतलें लिए

बना रहे हैं राउंड-टेबुल पर योजनाएँ

बोतलों में नशा है

नशे में तैरती

नशे में तैरती

गदरई देहवाली कई-कई आदिवासी लड़कियाँ हैं

आदिवासी लड़कियों के पास सपने हैं

सपनों में अधूरी इच्छाएँ हैं

भूख है,

भूख में दूर तक पसरी ऊबड़-खाबड़ धरती है

धरती पर काले नंगे पहाड़ हैं

पहाड़ पर वीरानियाँ...

बस!!!

और क्या है संथाल परगना में?

उतना भी बच नहीं रह गया ‘वह’

संथाल परगना में

जितने कि उनकी

संस्कृति के क़िस्से!

स्रोत :
  • पुस्तक : नगाड़े की तरह बजते शब्द (पृष्ठ 26)
  • रचनाकार : निर्मला पुतुल
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2005

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