संस्कृत में एक नवीन काव्य की आवश्यकता

sanskrit mein ek navin kaavy ki avashyakta

विद्याधर शास्त्री

विद्याधर शास्त्री

संस्कृत में एक नवीन काव्य की आवश्यकता

विद्याधर शास्त्री

जहाँ मति और गति प्रतिक्षण नवीन से नवीनतर होती रहती हैं,

ऐसे प्रत्येक नवीन विचारशील युग में काव्य भी नवीन क्यों हो?

संस्कृत-पंड़ितों में एक विचित्र प्रकार का महारोग बढ़ गया है, जिसके

कारण उनमें कोई नवीनता नहीं देखी जाती; इसलिए हितैषियों द्वारा वह

तुरंत शांत किया जाना चाहिए।

आत्म-विश्वास से हीन मनोवृत्ति तथा पराधीन बुद्धि वाला यह कोई महान्

रोग है, जो नूतन विकास में बाधक तथा साहित्य की श्रीवृद्धि का विनाशक

है।

उस रोग के कारण हमने अपनी मूर्खता से भारत की श्रेष्ठ संस्कृति को

धुएँ से ढक दिया है। विज्ञजनों को चाहिए कि उसे किसी महातेजस्वी सत्य

द्वारा शीघ्र प्रज्वलित करें।

किंतु हत्या में संलग्न, दुर्भावनाओं से जलते हुए तथा एक-दूसरे की

निंदा में तत्पर मनुष्यों की दशा देखकर मैं संसार में किसकी स्तुति करूँ और

किसकी निंदा?

आज भी गाढ़े अंधकार में क्षीण होती हुई प्रकाश की रेखा चमक

रही है तो वह संस्कृत की संस्कृति में ही है। अदृश्य होने से पहले ही उसकी

रक्षा करनी चाहिए।

संस्कृत के उन पंड़ित-प्रवरों की जय हो, जो अपने ज्ञान के कारण

उज्ज्वल हैं, जो शाश्वत दृष्टि से युक्त हैं तथा जिन्होंने हमारे भारत के गौरव

को, सैकड़ों बार अनार्यों द्वारा आक्रांत किए जाने पर भी, सुरक्षित रखा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 717)
  • रचनाकार : विद्याधर शास्त्री
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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