Font by Mehr Nastaliq Web

संस्कारों की सलाख़ें

sanskaron ki salakhen

अनुवाद : सुदर्शन शर्मा

वनिता

अन्य

अन्य

वनिता

संस्कारों की सलाख़ें

वनिता

और अधिकवनिता

    एक बहुत बड़ा घर

    ज्यों जेल के अंदर एक कोठरी

    कोठरी में मैं

    और मेरी ‘मैं’ के भीतर मेरे बाग़ी ख़यालात

    घर के बाहर मुझे

    दरख़्तों के पत्तों की आवाज़ सुनाई पड़ती

    नभ में उड़ते परिंदों की क़तारें देख मेरे पंख स्पंदित होते

    नभ में चमकते चाँद

    तारों के झुरमुट

    और आज़ाद हवाओं की सरसराहट को जब मैं हुंकारा भरती

    या नज़र भर देखती तो

    मेरा कंठहार मुझे फाँसी के फंदे-सा लगता

    मेरे पंखों में फड़कती उड़ान

    कुतर दी जाती संस्कारों की कतरनी लेकर

    और उन्हें लगता

    अब यह अपनी चोंच से

    फल या हरी मिर्चें नहीं कुतरेगी

    और ही आएगा

    किसी परवाज़ का काशनी ख़याल इसे

    उन्हें भ्रम है

    मेरे लिए मेरे अस्तित्व के संकट से उबरने की ख़ातिर

    बहुत ज़रूरी है

    घर के संस्कारों की सलाख़ों को तोड़ना

    मेरे पास एक इरादा है कि

    अब मुझे अपने बोलों को लेकर

    रगों में सोए पड़े सुरों के साथ मिलकर

    हवाओं में उड़ना और गरजना है

    अपनी चोंच से

    एक किरमजी सपना

    अपनी हथेली पर उठाना है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : वनिता
    • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY