सँकरी जगह पर

sankari jagah par

शिरीष कुमार मौर्य

शिरीष कुमार मौर्य

सँकरी जगह पर

शिरीष कुमार मौर्य

काल में बहुत पहले

बहुत पहले यानी जिसे अब हम काल का नपना बनाने के बाद

बत्तीस लाख बरस कह सकते हैं

तब एक जगह जिसे अब जगहों के नाम धर चुकने के बाद

हम इथोपिया कहते हैं

कज्जर कारे लोगों के उस प्रदेश में

एक आदमी घायल घिसटता आया

नदी की पतली धार तक

और कंठ भिगोने के साथ ही अचानक हमेशा के लिए पिछले पैरों पर

खड़े होने की कोशिश करने लगा

कुछ गिरने-लुढ़कने के बाद वह काँपता-सा

खड़ा हुआ दो पाँव पर

दुनिया को यकदम उसने कुछ फीट और ऊपर से देखा

वैसी ही कोशिश कर रहा है घर के अँधेरे सँकरे गलियारे में बेहोश होकर गिरा

एक आदमी

होश में आने के बाद

वह किसी घाटी में नहीं अपने संसार की एक सँकरी जगह पर पड़ा है

उसके मन में अनजाने ही लाखों बरस पुरानी स्मृतियाँ हैं

कई पुरास्मृतियों से घिरा वह अपनी नई भाषा खो चुका है

उसे बस कुछ ध्वानि-संकेत देने और समझने आते हैं

वह उन्हीं के सहारे किसी को पुकार सकता है

पर उसके अलावा सबके पास नई उन्नत चमचमाती विपुल अर्थों से भरी भाषा है

और उसके दाँत भिंचे हुए हैं

वह बस घिघिया पा रहा है

वह जीवन के सँकरेपन में फँस गया है

बमुश्किल उसे साँस रही है

अपनी खुलती आँखों से वह अँधेरे को घूर रहा है

जो दिल में भभक रहा था बरसों से

अब वह उसकी इन अधखुली आँखों में सुलग रहा है

उसे भीतर जलने की गंध रही है

वह इस आग का इस्तेमाल करने के बारे में सोच रहा है

उसका दिमाग़ बढ़ रहा है

जो घिसटते हुए एक उम्र बिताने से अधबना रह गया था

अब उसके हाथ आज़ाद हैं

और दिमाग़ गुरुत्व के तनाव में कुछ ऊपर सध रहा है जैसे

कुछ ऐसा कर गुज़रने को

जो पहले कभी हुआ नहीं उससे

वह अधझुका कुछ असंतुलित-सा खड़ा है

मगर खड़ा है

वह पुरास्मृतियों के सहारे नई यादों में जी रहा है

उसे गंध आती हैं

खाने की गंध जबकि वह पका भी नहीं होता

अपनों की गंध जबकि तेज़ी से लोप हो रहे हैं वे

जगहों की गंध जबकि वह अभी गया भी नहीं वहाँ

अपनी मादा की गंध जबकि दूसरी तीखी ख़ुशबुओं से लदी है वह

वह इतना आदिम है अब

कि अपने संगी कुत्ते तक को गंध से पहचान लेता है

उस बत्तीस लाख साल पुराने आदमी में कवि का होना भी

उतना ही पुराना है

उसकी मूर्च्छा उसे असफल कवि बनाती है

और सफल कहाने वाला कोई भी कवि हमेशा असफलता की संतान होता है

दिमाग़ ही नहीं, उसका दिल भी बढ़ रहा है

उसकी धमनियाँ सिकुड़ रही हैं बिना किसी बीमारी के वह बीमार हो रहा है

बिना किसी बीमारी के बीमार होना भी कवि होना है

पुरास्मृतियों में भटकना

बिना चले थकना

काल की हंडिया में हड्डी छोड़ देने की हद तक उसके फितूर का पकना

अपने उन लोगों के लिए उसका बिलखना–कलपना जिन्हें जान बचाने की ख़ातिर

अब भी किन्हीं गुफाओं के अँधेरे में छुपना पड़ता है

अँधेरा खोहों में भले क़ायम रहे पर बाहर के जोखिमों में उजाला चिनगियों की तरह

छिटकता है

कोई तो देखे कि उन चिनगियों में कवि का हाथ जलता है

जले हुए काले पड़े काँपते हुए हाथों से बत्तीस लाख सालों को पकड़ना

मनुष्य होते जाने के एक आदिम गर्व को साधना है

बहुत बाद के भरमाने वाले मिथकों में पलीता लगाते हुए

कविता की भाषा में अभी हमें बहुत भागना है!

स्रोत :
  • रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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