Font by Mehr Nastaliq Web

संधि

sandhi

अनुवाद : चक्रेश्वर भट्टाचार्य

हरि बरकाकति

अन्य

अन्य

और अधिकहरि बरकाकति

    सोनपाही मेरी!

    अँगुलियो की फाँक-फाँक से गिरने दो

    वेदना की स्मृति से भरपूर पाडुर दिनों को;

    कंकाल की हड्डी से जिसकी समाधि दूब घास में

    अश्वक्लांत बनाकर जाता है।

    पलायनी दुरत समय। उन सबको छोड़कर आओ

    बदलने को कुम्हार चक्की में

    जीवन के उपकंठ हज़ारों पग के दाग़ों से भरे हुए हैं,

    पोंछोगे कितने?

    तुम सिर्फ़ कहते जाओ

    मैं सिर्फ़ सुनता जाऊँ

    आज है सिर्फ़ कहने का और सुनने का अवसर।

    काल का जग और प्रभात की ताज़ी रोशनी की संधि

    विश्व गलता है, सोना जलता है आग की छाती में

    जीवन का चल-चित्र बोला—

    आया हुआ सच है,

    जाने वाला नहीं।

    इसके लिए मेरी प्यारी सोनपाही

    यायावर जीवन के सैकड़ों कोलाहल

    आज नेपथ्य में लीन है। कल्लोल निर्वाक् हो गया

    जीवन की फल्गु के पार।

    तुम आओ सोनपाही,

    यही समय है

    यही समय है प्यारी

    सिर्फ़ यही नहीं।

    महुआ बनकर रास्ता प्राणों के ज्वार से

    उछल जाने दो! तुम्हारे आने की प्यारे

    आकाश के पीले चाँद की गवाही देने दो।

    तुम्हारी दोनों ब्राउन आँखों का प्यार सिंचित कर

    बीते हुए दिनों की चिता-भस्म से

    मुझे ज़िंदा बनाओ

    फ़ीनिक्स की तरह।

    और किसी को ख़बर नहीं होनी चाहिए

    दुनिया को मिट जाने दो, सोनपाही

    आज तुम्हारी और मेरी संधि है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 33)
    • रचनाकार : हरि बरकाकती
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए