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सच ये है कि

sach ye hai ki

अनुवाद : नीता बैनर्जी

नलिनीधर भट्टाचार्य

अन्य

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और अधिकनलिनीधर भट्टाचार्य

    मित्र कहता है :

    बहुत कुछ हो चुका है

    पर सच ये है कि

    कुछ नहीं हुआ है

    वही पुराना घर

    जीर्ण-जीर्ण शय्या

    सूखी घास का-सा

    बदरंग कलेजा

    आकाश भी वही है जो

    धरती की वेणी में

    फेरने उँगलियाँ

    उतर आना चाहता था

    पर कहाँ पाया?

    सब कुछ है वैसा ही

    उदास आकाश, व्याकुल धरती।

    धूल-धूसरित मनुष्य भी है वही

    जो जीवन को

    चूमने बढ़ा था

    धान की बाली में

    छंद ढूँढ़ने चला था

    उसने चाहा था

    सागर-सा गंभीर

    कवि बनना

    पर कहाँ बन पाया?

    सब है वैसा ही

    केवल मनुष्य बौराया-सा

    सब तोड़-फोड़ रहा है

    ...और बस दौड़ रहा है।

    ...मैं भी वही हूँ

    सोचा था, मुरझाए मनों में

    सागर भर दूँ मधु का

    चिर-यौवन पाऊँ

    सुरभि सान ऋतु-मेघ-माटी की

    मृत्यु के तम को चीर

    नई सृष्टि की मुस्कान देखूँ

    रक्तकणों में...

    पर कहाँ कुछ कर पाया?

    मन काँटों में बिंधा हुआ

    आँखें धुँधलाई-सी

    बाट-हाट, जंगल-पत्थर

    सूझता नहीं कुछ भी

    यहाँ प्रेम जीता है बस

    एक रात और दिन

    ...फिर इति

    अब वो लालिमा कहाँ

    धरती के होठों पर

    अंबर के होठों की

    पानी सारा बहा जा रहा

    नरक की ओर, रोके कौन?

    जगह नहीं मिलती

    धरती को जड़ें जमाने की

    कहाँ बसाओगे घर

    कहाँ सेज बिछेगी?

    फिर भी मित्र कहता है :

    बहुत कुछ हुआ है

    पर सच तो ये है कि,

    कुछ भी नहीं हुआ है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1987-88 (पृष्ठ 5)
    • संपादक : र.श. केलकर
    • रचनाकार : नलिनीधर भट्टाचार्य
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1992

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