सबसे सुंदर थे वो दिन

sabse sundar the wo din

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

सबसे सुंदर थे वो दिन

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

सबसे सुंदर थे वो दिन  

जो चौबीस-चौबीस घंटे 

तुम्हारी फ़िक्र में कटे

कितनी सुकून भरी थीं

वे सारी गतिविधियाँ 

जो सिर्फ़ तुमसे जुड़ी थीं

जैसे कोई नदी 

लहर दर लहर यात्रा के साथ

नहीं छोड़ सकती जल का साथ 

यही महसूस किया मैंने 

कोई नदी-सी मैं

पानी से तुम...

नदी की यात्रा में छूटता है जल

जुड़ता है जल 

भरता है जल 

वाष्पित होता है जल

लहक उठती है नदी 

सूखती भी नदी ही है

चलो कहती हूँ कि कहो नदी

अपने आप जाता है जल 

जैसे अपने आप से कहती हूँ सुकून

मन में स्पष्ट उपराती है तुम्हारी तस्वीर

किसी फ़िल्म में सुना था 

सुंदर यादों के सहारे 

काटी जा सकती है पूरी ज़िंदगी 

यह इतना सच है जैसे

साँस चलने से चलती है ज़िंदगी।

अपने अवसाद के क्षणों में 

जब थककर मैंने मूँद लिए नैन

सोचा तुम्हे

फिर यक़ीन मानो मेरी उम्र 

पच्चीस बरस से हो गई पाँच की

अवसाद की जगह 

मैं बुनने लगी क़िस्से 

कहो काहें...नेबुआ के छाहें।

फ़ोन में देखती हूँ तुम्हारा काँटैक्ट नंबर चेहरे पर उतर आता है सुकून

सचमुच प्रेम से बड़ा कोई दर्शन नहीं 

प्रेम हुए बिना जीवन की पूर्णता नहीं 

प्रेम पर पूरा-पूरा

कुछ कहा जा सका नहीं 

दिलचस्प है कि प्रेम से कुछ भी छूटा नहीं।

स्रोत :
  • रचनाकार : आकृति विज्ञा 'अर्पण’
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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