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मोर्चे की ओर

morche ki or

अलेक्सांद्र ब्लोक

अन्य

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अलेक्सांद्र ब्लोक

मोर्चे की ओर

अलेक्सांद्र ब्लोक

और अधिकअलेक्सांद्र ब्लोक

    वर्षा-बोझिल नभ था पेत्रोग्राद शहर का

    एक फ़ौज-गाड़ी मोर्चे पर जाने को थी।

    पल्टन-पर-पल्टन, संगीनों-पर-संगीनें

    अंतहीन-सी डिब्बों में भरती जाती थीं।

    बिछुड़न का दु:ख और प्यार की दुश्चिंताएँ

    बल की, यौवन की आशाएँ-आकांक्षाएँ,

    उमग रही थीं गाड़ी के हज़ार प्राणों में।

    सान्ध्य-प्रभा से धूमिल घन रक्तिम लगते थे।

    कुछ सीटों पर बैठे वारयाग गाते थे,

    येरमाक गाते थे कुछ बेसुरे गले से

    'हुर्रा-हुर्रा' कहकर हँसी-ठिठोली करते,

    हाथों से चुपचाप बनाते चिह्न क्रूस का।

    सहसा एक झरी पत्ती उड़ गई हवा में,

    डोल उठी टिमटिम करती वह लालटेन भी,

    श्याम घनों के नीचे मस्त बिगुलवाले ने

    ट्रेन छूटने का अंतिम संकेत बजाया।

    सैनिक गौरव-भरी बिगुल की सिसकारी ने

    चिंताकुल कर दिया सभी के मन-प्राणों को,

    पहियों की घर-घर ने, भर्रायी सीटी ने

    दबा दिया उस अंतहीन 'हुर्रा' के रव को।

    लुप्त हुए आख़िरी बफ़र भी अँधियारे में,

    और छा गया सन्नाटा दूसरी ओर तक;

    फिर भी भीगे खेतों से 'हुर्रा' ध्वनि आई

    और सुना गर्जना-भरा स्वर : 'यही समय है।'

    नहीं, बरसती दूरी में भी उस संध्या को

    हमें अनुभव हुआ शोक का या कि दया का।

    वह था सुदृढ़ स्पष्ट निष्ठामय संयत साहस

    उसे ज़रूरत थी हमारे खेद-शोक की।

    शोक हमारा सुन्न पड़ गया था लपटों में,

    तोपों की धूँ-धूँ में, टापों की टप-टप में,

    गैलिशिया के ख़ूनी रणक्षेत्रों से उठते

    एक विषाक्त कुहरे से ढँक गई उदासी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 44)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र ब्लोक
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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