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रूसी गाँव

rusi gaanv

अंद्रेइ विएली

अन्य

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अंद्रेइ विएली

रूसी गाँव

अंद्रेइ विएली

और अधिकअंद्रेइ विएली

    देखता हूँ दूर तक मैदान फैले,

    मंद बहती है हवाएँ,

    गाँव एकाकी घिरा सुनसान से है

    कर रहा है साँय-साँय-साँय

    झोपड़े कुछ कुगढ़ लकड़ी के खड़े हैं

    अधगिरे से रास्ते पर,

    ज्यों खड़ी हो बूढ़िया सुध-बुध विहीना,

    दंत-हीना, देह जर्जर।

    जोड़ छत के खुल गए हैं, पड़ रही हैं

    जा-ब-जा उनमें दरारें,

    रात-दिन चलती हवाएँ आह भरती,

    धूलि की आती फुहारें।

    आँख जैसी खिड़कियों से देखते हैं

    झोपड़े दूरी क्षितिज तक,

    और आता है नज़र फैलाव केवल

    घास मिट्टी का भयानक।

    सूर्य ऊपर, भूमि नीचे, बीच टूटी

    ज़िंदगी के चार टुकड़े,

    दिवस आते, दिवस जाते पर किसी के

    हेतु मुसकाते मुखड़े।

    दिन गुज़रते, मास कटता, साल हटता,

    एक-सा हर प्रात होता,

    फसल उगती, फसल कटती, ज़िंदगी का

    म्लान मुख कोई धोता।

    हवा भारी हो गई, ऊमस भरी,

    आसार यह तूफ़ान का है,

    जब समय घन के सघन उत्थान का है,

    बच के अभियान का है।

    एक गहरी लाल, पागल-सी लपट उठ

    बादलों को चीर देगी,

    एक झाड़ी ताज-सी गिरि पर लगी जो

    टूट सागर में धँसेगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 136)
    • रचनाकार : अंद्रेइ विएली
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1964

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