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रुकी नहीं रात ज़रा भी

ruki nahin raat zara bhi

मंगेश पाडगाँवकर

अन्य

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मंगेश पाडगाँवकर

रुकी नहीं रात ज़रा भी

मंगेश पाडगाँवकर

और अधिकमंगेश पाडगाँवकर

    तुमने रुकने को कहा, फिर भी

    रुकी नहीं रात ज़रा भी

    अनजान देशों के

    अनजान पंछी की तरह

    ज़रा-सी पहचान का छूता हुआ पर

    विरह से अकुलाता, मँडराता

    केवल पीछे बचा,

    तुमने रुकने को कहा, फिर भी

    रुकी नहीं रात ज़रा भी

    फटती हुई जान पड़ी

    कुहरे की काँच संवेदनशील

    और उनमें से दिखाई दिया, फैला हुआ—

    गहरे रंगचित्रों का

    गूढ़ जापानी पंखा

    क्षितिज पर खुलता हुआ

    वह भी खोने के लिए

    तुमने रुकने को कहा, फिर भी

    रुकी नहीं रात ज़रा भी

    और स्वप्न-यमुना के पानी से भरा हुआ

    रात की निद्रा का घट नाज़ुक

    रिक्त पुनः जान पड़ा।

    पेड़ों की गोपियाँ

    तिमिर की ओढनी में छिपी हुई

    लगा—वे थी हीं नहीं।

    दोनों को जान पड़ा

    पेड़ पेड़ बन गए

    पुरानी रात-शाखों के

    और हरे पत्तों के—

    पककर झरने करे लिए फूटे हुए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 597)
    • रचनाकार : मंगेश पाडगाँवकर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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