‘रो लेने की जगहें’

‘ro lene ki jaghen’

बबली गुज्जर

बबली गुज्जर

‘रो लेने की जगहें’

बबली गुज्जर

हम सतजुग में पैदा नहीं हुए थे,

कि तुम उस पार दिए बालती

और मैं उसकी चमक भर से

अँधेरों में खोज लेता कोई

तुम तक आने की सीधी राह

मेरे पुरखों की किसी चूक से

नाराज़ हो गया है नींद का देवता,

मैं रातों को दिन बनाने में पारंगत होकर

ख़ुद को दे रहा हूँ एक धीमे ज़हर सी सज़ा

हम धोखा दिए जाने के इस स्वर्णिम युग मे जन्में

जहाँ नाराज़गी में पीठ फेर लेने की देर भर से ही

बदल लिए जाते हैं मंज़िलें और हमसफ़र तक भी

हम झूलों की रस्सियों से

फाँसी के फँदे बनाने के दौर में हैं

हम झींगुर की चुप्पी में दबे

कभी गूँगे भिखारी के शोर में हैं

और मैं

मैं, ज़ख़्म ठीक हो जाने के बाद

बचे मरहम के पात्र की तली का

एक गैर ज़रूरी लेप हूँ

जिसे अब तो कोई छूने को राज़ी है

उसकी किसी को चाह है...

तुम्हारी याद भीड़ में खोए

किसी बालक की तरह गले लगती है

और किसी सर्प की भाँति जकड़ लेती है मेरी छाती

पानी जाने क्यों भूल जाता है,

कि गहरे कुएँ में जाने वाला पात्र

उसके अँधेरों को देखने नहीं,

सिर्फ़ अपनी पिस बुझाने आता है...

मैं जाने क्यों भूल जाता हूँ

कि पिस से मेरा कितना गहरा नाता है

तुम्हारे आँसुओं ने लेकिन सदा ही

की है तुम्हारी ग़लतियों की वकालत

और हराया है मुझे अनेको बार...

...कटघरे में तुम्हारी जगह

खड़ा होता है एक अकेला मेरा प्यार

जो सबसे ज़्यादा निर्दोष होते हुए भी

काट रहा है एक लंबी उम्रक़ैद की सज़ा

पीड़ा की बेड़ियाँ मुझे जकड़ कर रखती हैं ज़मीन पर

मेरे पंख तुम्हारे आँचल के मान के वज़न तले दबकर

हुए जा रहें हैं कोई खोई हुई सभ्यता के अवशेष

और लहूलुहान छलनी हो चुका है मेरा हृदय

जब अगली बार हाथ थामों किसी का

तो मेरी ये आख़िरी बात स्मरण कर लेना...

किसी को हँसने की वजहें दे सको...तो सही

लेकिन रो लेने की जगहें ज़रूर देना!

स्रोत :
  • रचनाकार : बबली गुज्जर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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