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खटारा साइकिल के सहारे

khatara cycle ke sahare

वासु आचार्य

अन्य

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वासु आचार्य

खटारा साइकिल के सहारे

वासु आचार्य

और अधिकवासु आचार्य

    सब-कुछ जानते बूझते / अनजान बना

    क्यों भटकता रहता हूँ / खटारा साइकिल के सहारे

    बनती-बिगड़ती रहती हैं

    बेमक़सद की छवियाँ— मन में / अंतस् में

    जबकि जानता हूँ—

    मैं बाज़ के तीखे पंजों में

    तड़पते किसी भोले-भाले पक्षी तक को

    नहीं बचा पाता!

    बिखरती झोंपड़ियों के छाजन से

    निकलती भूख-प्यास की चीख़ों को

    नहीं दे सकता—तसल्ली के दो शब्द

    और हवेलियों की नींव के

    रक्त-सने पत्थरों को उखाड़ सकता।

    विवशता की यह अदीठ आग

    जलाती रहती है मेरा रोम-रोम

    करती रहती है कलेजे के टुकड़े-टुकड़े

    और मुझे अपना होना ही

    ज़हर के घूँट पीने का अहसास कराते हैं।

    कब तक रहेगी—यह खींच-तान

    खोटाई, बाट-सहित तराजू में झोल

    किससे पूछूँ / कौन देगा प्रत्युत्तर

    बड़ी राजगछियाँ / जब बनी रहें अनजान

    और अगले दिन फिर / चख-चख करते

    चर्र-चर्र करते / कर्र-कर्र करते

    इस सूने शहर में

    निकल जाऊँ भटकने

    खटारा साइकिल के सहारे—

    आख़िर कब तक—आख़िर कब तक?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 81)
    • रचनाकार : वासु आचार्य
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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