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राजगीर टू सूरत

rajagir two surat

अखिलेश श्रीवास्तव

अन्य

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अखिलेश श्रीवास्तव

राजगीर टू सूरत

अखिलेश श्रीवास्तव

और अधिकअखिलेश श्रीवास्तव

    ये जो धड़ाधड़ धागा काट रही है

    सूरत के टेक्सटाइल मिल में

    खा जाती है मेरा सारा सतुआ, पिसान

    उसके खटराग में

    भोजपुरी सुन लेता हूँ मैं

    बलेसर और भिखारी मन पर जाते हैं

    प्रचंड गर्मी में

    मेरे कपड़े उतरवा कर मन भर थान ज़्यादा बुनती है

    मेरे मालिक ने आँखें लगा दी हैं मशीन में

    वह हाड़-हाड़ गिन सकती है

    चर्बी तौल सकती है

    दम भर साँस लेने को रोक दूँ

    तो बहुत से लाल बल्ब जला देती है

    हूटर बजाती है

    मैं काँप जाता हूँ

    जैसे निरीह अपराधी काँप जाता है पुलिसिया हूटर सुनकर

    फिर भी जो मथुरा, काशी, अयोध्या नहीं दे पाए

    वे विश्वकर्मा दे जाते हैं

    पिछले साल एक अँगूठा छटक गया था जड़ से

    पर चढ़ावा कहाँ नहीं चढ़ाना पड़ता।

    अब मैं चार अँगुलियों से पिसान सान लेता हूँ

    रोटी के लिए अँगूठे की उतनी ज़रूरत नहीं

    जितनी पिसान की है

    तुम्हारी मशीन हमारे लिए धागा बनाती है सूरत

    सिवान, राजगीर तुम्हारे लिए अँगूठा बनाते हैं

    और पुरबिया एक्सप्रेस की लौटती बोगी से ग़ायब है एक पोटली

    ताप्ती का पुल पार करते हुए।

    जब भी कहीं बैठाई जाती है भारी-भरकम मशीन

    दूर बैठे किसी बिहारी की बिल्टी कट जाती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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