राधा कहाँ है-4

radha kahan hai 4

सुगतकुमारी

सुगतकुमारी

राधा कहाँ है-4

सुगतकुमारी

सारी रात बीत गई एक पल भी मूँदे नयन

जलक्रीड़ा कर लौटे थे एक साथ

मुझे सजाओ कहती हुई

एक चिकनी कालिन्दी-शिला पर जा बैठी मैं!

ऐसा कुछ भी नहीं जो जाने कान्ह, मेरी

आँखों में लगाया काजल, और लगाया तिलक

‘कभी ढंग से नहीं लगाती टिकुली मस्तक पर’

उपहास करते हुए बोले कृष्ण ठीक से बिंदी लगाते हुए

‘अब तुम बहुत सुंदर लग रही हो’—कहते हुए

सजाए मेरे केश विचित्र प्रकार से और

सजाई सिर में मौलसिरी की फूलमाला

फिर लिया चुंबन कपोलों का

अपने कर की अंगुली से नटखट कान्ह ने

वक्षस्थल पर रची पत्रावलि

निपुण हाथों से पुष्पों की पंखुड़ियों सी

चुनरी की सलवटें सजाने को भी कितनी कुशलता

अतृप्त, अनवरत निहारते! अपने

दिव्य नयनों से मुझे अपलक विलोकते

कस्तूरी गंध वमित देह!

मैं आनंद-विभोर आँखें छिपा के।

निज गोद में रख मेरे पग

प्रेम से पहनाते थे रजत पायलें

दुलारते, बजाते थे पैजनियाँ

मुस्कुराते, सहलाते थे

घमण्ड से भर जाती थी मैं!

प्रेम निमग्न मेरे स्वामी क्षमा करें...

केतकी-पुष्पित रात में

कुछ दूर चलने के बाद मुड़ते हुए बोली

‘बहुत दुःखने लगे हैं मेरे पैर’

“कंधे पर बिठा लेता हूँ मैं” कहकर

हँसते हुए हाथ फैलाए खड़े

यही तो है रास्ते का यह मोड़

तुम आज कहीं बहुत दूर!

इतने प्रगाढ़ प्रेम के बाद

इतना दुलारने के बाद

छोड़ना इतना सरल है क्या?

कृष्ण, कितने दूर चले गए हो तुम!

क्या मेरी परीक्षा ले रहे थे?

उसी रात तुम जा खड़े थे उस पार

एक बार पुकार झट से उठी मैं

'कहाँ हो तुम” सोचती खोजती पहुँची

कँटीले पौधे, अंधकार और खाइयाँ

“रुको रुको” मना करती थी “बहुत

देर हो गई, अब जाओ जाओ

माधव पुकारते थे केवल राधा को, वस्त्र

उलझे, पता नहीं चला

शरीर के घावों में जलन नहीं हुई

दौड़ के खोजते पहुँचे अँधेरे में

तेरे सिवा कोई भी नहीं इस मन में

उस पार है तू, घनान्धकार में

झलकती तेरे पीतांबर की चमक!

घनघोर वर्षा है, भरी है यमुना

एक गोफन की तरह

घुमा के तुमने फेंकी मोहिनी वंशी ध्वनि!

मेरे वक्ष पर आकर लगी!

बड़े निर्दयी हो मेरे कान्हा,

जानती हूँ मैं!

अब दूर कैसे खड़ी मैं? नदी ही नहीं,

पार करूँगी मैं एक समुद्र की गहराई भी।

हृदय छेदकर लगी वह नुकीली

गोफन खींचने पर आए बिना नहीं रह सकती।

सिकुड़नवाली घाघरी ऊँचा बाँध के,

सजाए केश कस बाँध के आँसू पोंछती

आत्म-विस्मृत उतर पडी मैं सैकड़ों

लहरों की जिह्वाएँ घेरती मुझे।

इन लहरों से क्यों रोकती हो सखि

कालिन्दी, मुझसे इतनी ईर्ष्या क्यों?

मत हटाओ इस घिरे अंधकार में मुझे

कान्ह पुकारते होंगे!

घेर के खींचते प्रवाह! कितनी बार

देह जा टकराई शिलासंधियों पर

कितनी बार भंवरों में चकराई मैं

कितनी बार हाथ हो गए लहूलुहान

तैर-तैर थकी शिथिल हो गई

किसी तरह जा पहुँची उस पार

दौड़ पहुँची आपके पास “मैं गई” कहकर

गिर गई होकर क्लांत मैं सींचती वे पैरें

आपादमस्त काँपती मुझे भव हृदय से

लगा के कहे क्या?

“हमें अलग करने कुछ भी नहीं, राधिके

धरती और आकाश में” नहीं क्या...

फिर? कर्म की पुकार, राज-

धर्म की पुकार, कुल की पुकार

और दुःखियों की पुकार

कहकर मेरी छाती पर रथ दनदनाते चले गए वे...

संसार की व्यथा की बहुत सी शिकायतें बताते

राधा का ताप अगण्य ताप...

आज के इस प्रभात की कितनी नीलिमा

मानो कान्ह तुम्हारे शरीर की मनोमोहक परछाई!

आज इस मेघमंडल की कैसी चमक!

कान्हा तुम्हारे पदतल की अरुणिमा-सी!...

क्या किया फिर राधा ने? गाता नहीं

शुक वे कथाएँ

अंकित नहीं किया कवियों ने; नहीं शिल्पियों की

मूर्तियों से जानी जा सकतीं वे कथाएँ।

कहाँ गई राधा? कालिन्दी के सोपान पर

संध्या समय किसी छाया सी

अकेली बैठी नयन झुका के? मटकी

अदृश्य हो गई बिना जल भरे ही।

गंध-प्रवहित पगडंडियों में विवर्णित

बही छाया बन के भटकते क्या?

तभी रात में एक बार गुंजित हुई बाँसुरी

“संकेतस्थान पहुँचना”

कंपित शरीर गोपिकाएँ

कानों में वंशी का अमृत पाकर

चल पड़ीं सुनकर पुकार।

निश्चय नहीं है कान्ह! कौन है जो पुकारता?

सुनते ही तुरंत बंद हो गया वंशी रव

अभेद्य-अंधकार में कदम्ब तले खड़े

बाँसुरी बजाता है कौन?

वे उसे राधा कहते अश्रुपूरित नयनों से...

फिर देखा नहीं किसी ने राधा को।

पायल की ध्वनि सुनी नहीं

कान्ह की लीला गाते दधिमंथन करती

माताओं के निवास स्थानों में,

गायों को दुहके गाती

सुन्दरियों के बीच में,

हिंदोल-विस्मृत निश्चल पड़ी

वन-दोल में,

चमकती लहराती छलकती बहती

कालिन्दी की छाती में,

नहीं देखा राधा को फिर कभी हमने।

क्या अँधेरे में अदृश्य हो गई राधा?

राधा कहाँ है? खोजो मन्दानिल

मेरे व्यथित-मन...

स्रोत :
  • पुस्तक : राधा कहाँ है (पृष्ठ 64)
  • रचनाकार : सुगतकुमारी
  • प्रकाशन : केरल हिंदी साहित्य मंडल प्रकाशन
  • संस्करण : 1996
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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