पुरुष

purush

श्रीनरेश मेहता

हमें जन्म देकर

पिता सूर्य!

माता सविता!

क्या इसीलिए तुम मार्तंड हो कि

अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त

और कुछ भी नहीं जन्म दे सकते?

मैं जानता हूँ तुम वामन हो

पर हिरण्यगर्भ तो हो

और हिरण्यगर्भ होने का तात्पर्य है

युगनद्ध शिव होना

पर लगता है उषा के सोम अभिषेक ने

तुम्हें सदा के लिए शंभु बना दिया

तुम शक्ति हो चुके हो

पर शायद सृष्टि को जन्म देने के उपरांत

उसके पालन के लिए तुम प्रकाशरूप

विष्णु हो

पिता सूर्य!

हिरण्यगर्भ से वामन

और वामन से श्वेत वामन तारा बनने की

आकांक्षा में।

आदि हिरण्यगर्भ!

तुम ही महागणपति,

गणाधिपति कारणभूत महापिंड हो

तुम्हारा ही गण-वैभव रूप

तारों की मंदाकिनियों, आकाशगंगाओं के रूप में

पराब्रह्मांडों में व्याप्त है।

जैसे आकारातीत सूँड में सारे तारों के गण

लिपटे पड़े हों

और तुम आनंदभाव से सिहरित होकर

शाश्वत ओंकार नाद कर रहे हो

जिसे हमारी पृथिवी, आकाश ही नहीं।

हम सब अपने स्वत्व में सुनते हैं

तुम्हें प्रणाम है।

प्रत्येक अपने स्व का चक्र

प्रतिक्षण लगा रहा है

और इस गति की परम तेजी को

सामान्य भाव में नहीं देखा जा सकता

पर यह चंद्रगति है

जिससे हमारे आकाश में प्रकंपन उत्पन्न होता है

ताकि हमारी पृथिवी अपनी धुरी पर घूम सके

और धुरी-गति को स्वरूप मिल सके

यही धुरी-गति ही हमारी पृथिवी को

ऋतुमति बनाती है।

ऋतुमति धरती की यह ऋतुगति हमारे लिए

कितनी उत्सवरूपा है यह हम सब जानते हैं

पर शायद यह हम नहीं जानते कि

सूर्य हमारी इस पृथिवी को लेकर

और पृथिवी हमें लेकर

आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा पर

मन्वंतर गति की गणनातीतता की ओर

भी धावित है

और क्या उस परायात्रा की हमें कोई प्रतीति है

कि हमारी नभगंगा अन्य मंदाकिनियों के साथ

अनावर्ती नक्षत्र-विस्तार की ब्रह्मांडातीतता में

अपसर्पण गति से यात्रा कर रही है?

एक महाशेष नाग-यात्रा है

जिस पर जैविकता का विष्णु शेषशायी है।

हम अपाद सृष्टियाँ हैं

जिन्हें तुम वृक्ष, वनस्पतियाँ, पहाड़ या चट्टानें कहते हो

वैसे समुद्र भी अपाद सृष्टि ही है

यद्यपि वह अपने थान पर ही बँधे हुए डकारते साँड़-सा हुँफकारता रहता है

पर वह हिल्लोलता ही है, चलता नहीं है।

क्योंकि चलने का अर्थ कहीं जाना होता है

और समुद्र कहीं जाता नहीं।

वह केवल गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध पछाड़े खाता है।

ठीक है, हम अपाद हैं।

पर गतिहीन नहीं।

वृक्ष का गिरना गतिशील होना है

और हम अपने इस गिरने के साथ

पृथिवी पर एक रिक्तता लिख जाते हैं

पृथिवी के सीने से सटे आकाश में

एक ख़ालीपन उभर आता है

और चिड़ियाँ उदास हो जाती हैं।

वर्षों-वर्षों पहाड़ मौसमों में तपते खड़े सोचता रहता है

और जब गुरुत्वाकर्षण असह्य हो जाता है।

तब उसके भीतर का अग्नि-पुरुष

लपलपाता लावा बनकर

पहले वायुमंडल को झुलसाता है

और तब पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण को भस्मीभूत करने लगता है।

हाँ, अपाद सृष्टियाँ

इसके अतिरिक्त कर ही क्या सकती हैं?

किसी दूसरे की ओर मत देखो

कोई दूसरा किसी का त्राता नहीं हो सकता

तुम स्वयं ही प्रकाश हो।

प्रकाश-पुरुष हो।

जिसके लिए आर्तता में तुमने हाथ उठाए हैं।

वह तुममें ही विराजा है।

यदि किसी दूसरे ने उसे देखा है

तो तुम्हारे नेत्र क्यों नहीं उसे देख सकते?

यदि किसी ने उसकी वाणी सुनी है

तो तुम्हारे कान क्यों नहीं उस दिव्यवाणी को सुन सकते?

यदि देखना ही है

तो अपनी आँखों से आकाश को देखो

अपने कान काल के सीने पर लगाकर सुनो।

अपने और प्रभु के बीच

किसी भी तीसरे को मत उपस्थित होने दो।

तुम स्वयं पुकारो

प्रभु का द्वार खुला मिलेगा

किसी त्राता के पास इस द्वार की कुंजी नहीं है।

स्रोत :
  • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 144)
  • संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय
  • रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2015

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