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आवाज़ें और पगचिह्न

avazen aur pagchihn

दर्शन बुट्टर

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दर्शन बुट्टर

आवाज़ें और पगचिह्न

दर्शन बुट्टर

और अधिकदर्शन बुट्टर

     

    जिज्ञासा

    ख़ुद ही वह पगडंडी हूँ 
    जिस पर पग चिह्न नृत्य करते 
    ख़ुद ही वह पगचिह्न 
    जो तड़पती पगडंडी पर

    गाहे-बगाहे 
    ढूँढ़ती हूँ अपने आप को 
    तो गँवा बैठती हूँ 
    पैरों तले की ज़मीन भी

    उठती-बैठती 
    शीशे के सामने होती हूँ 
    तो
    अक्स के बीच के सच को 
    सब से बड़ा झूठ समझती हूँ

    चलती-फिरती 
    छाँव बाँटते वृक्षों के पास से गुज़रती हूँ 
    तो
    बिसार देती हूँ 
    उनके तले दम लेती धूप को

    उतावली के आगे 
    हासिल पलों को हार बैठती हूँ 
    स्वानों को 
    तमग़ों की भाँति सजा लेती हूँ

    सुवर्ण प्रात को लालायित 
    ख़ुद पीतल हो जाती हूँ

    लोग तो मुझे 
    आवाज़ों में से खोजते हैं 
    पर मैं ख़ुद को 
    सन्नाटों में से तलाशती हूँ

    ऐसा 
    क्यों होता है गुरुदेव!...

    गुरुदेव

    दरअसल 
    सोचों के भुलावे अक्षरों बीच ही 
    उलझे पड़े हैं हम 
    कैसे समझ आए 
    जीवन रहस्य की वर्णमाला

    यदि यह आवाज़ें 
    हमार ही भीतरी सन्नाटे से 
    भय खाने लगीं 
    तो कैसे रचेंगी वह 
    सारी ख़ला में

    यदि स्वर्ग बनाय राह 
    हड़प गए ताज़े पगचिह्नों को 
    तो कैसे करेंगे तसव्वुर 
    अनंत सफ़र का

    यदि महकें ही खा गईं 
    ताज़े फूलों को 
    तो माली लगाएँगे ही 
    गुलमुहरों पर सूलियों की क़लम

    यदि माधे बीच बरगद को 
    लग जाए रोग 
    तो चुग्गा चुगने नहीं आते 
    संवेदना के पंछी

    पंछी उड़ते सुहाते 
    यदि हमारे भीतर का आकाश निर्मल हो 
    मुसाफ़िर चलते भले लगें 
    यदि हमारे भीतर की राह पवित्र हो

    स्वार्थ सो जाए तो हम जागते 
    हवस रुक जाए तो हम चलते 
    ईर्ष्या बुझ जाए तो हम जलते 
    'मैं' मर जाए तो हम जीते...

    स्रोत :
    • पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 24)
    • रचनाकार : दर्शन बुट्टर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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