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अतृप्ति

atripti

दर्शन बुट्टर

अन्य

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दर्शन बुट्टर

अतृप्ति

दर्शन बुट्टर

और अधिकदर्शन बुट्टर

     

    जिज्ञासा

    हे गुरुदेव! 
    मैं अपनी अतृप्तियों का भिक्षा-पात्र लेकर 
    खड़ी हूँ तेरे द्वार

    तू ज्ञान का महासागर 
    मेरी तपती रूह को 
    ज़रा-सी नमी बख़्श 
    सिर पर छाई काली घटाएँ 
    लाँघ गईं प्यास जगाकर

    मेरे माथे की ठीकरी पर उकरा 
    युगों का संताप 
    मेरी देह की जिल्द पर लिखी 
    पीढ़ियों की भटकन

    मेरे ख़ाली भिक्षा-पात्र में 
    दो धड़कते हर्फ़ डाल 
    जो पार ले जाएँ मुझे 
    फैली सिमटती प्यास से

    पैरों तले बर्फ़ पर 
    चेतना के अंगार बिछा 
    अँधकार की सल्तनत में 
    कोई दिया जला

    मेरे गिर्द झुरमुट है 
    पागल शंकाओं का
    मेरे स्वप्नों में शोर है 
    बिफरे दरियाओं का

    किस विधि सहज होकर 
    अपने अस्तित्व का मक़सद तलाशूँ 
    किस विधि तरल होकर 
    बहूँ अपने धरातल पर

    तू मुझे 'अ' की उँगली पकड़ा 
    'ज्ञ' की राह 
    मैं स्वयं तलाश लूँगी...


    गुरुदेव

    हे सखी! 
    अतृप्तियाँ ही ज़ामिन होतीं 
    रगों में दौड़ते लहू की 
    प्यास मिट जाए तो 
    तलाश का सिलसिला ही रुक जाता है

    फिर भी 
    ख़ुश्क होंठों पर दो बूँदें टपका कर 
    ज़रूरी है प्यास जीवित रखना 
    फटे पैरों पर मेहँदी लगाएँ 
    तो रंग और गाढ़ा उघड़ता है

    अणुओं की कशमकश के बेरोक वेग को 
    हम संताप कहें या होनी 
    भटकन या तलाश 
    बस यही आधार है हमारे अस्तित्व का

    हर शंका का जन्म 
    तरल कर देता हमें 
    गहराइयों में बहने के लिए 
    हर शंका की मौत 
    पथरा देती 
    मन में लरजते पारे को।

    चित्त में कोलाहल हो 
    तो ज़रूरी है 
    उसको पवन के हवाले करना 
    आंतरिक झील मूर्छित हो 
    तो ज़रूरी है उसे तरंगित करना

    तुझे मुबारक़ हो यह भटकन 
    तेरी पाज़ेब के ज़ख़्म 
    फूल बन कर खिलेंगे एक दिन

    मैं जो 
    बूँद मात्र हूँ महासागर की 
    अपने वजूद के सातों रंग बिछाता हूँ 
    तेरे मुबारक़ पैरों तले...

    स्रोत :
    • पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : दर्शन बुट्टर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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