प्रेम

prem

मलयज

मलयज

प्रेम

मलयज

कमरे की पँजरियों के नीचे

एक हरी मोमबत्ती चित्त पड़ी थी।

गली की दीवारें टिका दी गई थीं

बैसाखियों-सी

(अजब उकताहट जगाता था उनका

आदमी से अलग

यों सुस्ताना!)

सब सुस्ता रहे थे, हाँफ चुकने के बाद

बहनें सिली जाती ब्लाउज़ों की तुरपनों में

बच्चे गणित के अड़ियल-टट्टू-सवालों में

माँएँ रसोई से लगे तंग ओसारों में।

और सब अपने अपने में।

तेज़ी से गिरती हुई परछाइयों ने सिर्फ़ पुकारा तो मुझे

चौखट के बाहर;

गया,

वहाँ चर्च के किनारे एक पत्ती थी...

वही अलग अलग कोमल भिने हुए रेशे

जिन्हें मुद्दतों से जानता हूँ

किताब की सुलभ तस्वीरों से दूर आसमान के मिटते रंगों तक

और पहचानने की ज़रूरत नहीं होती, इतनी साधारण!

और वही उसका झूलना हवा में काँप जाना

थिर होना और

आँखों को पकड़ना, छुड़ा लेना

पत्ती का एक पूरा अनुभव।

एक छाप

हरी मोमबत्ती के अचानक जल उठने से

सीधी जो पड़ी

ले जाती इस दुनिया के बाहर बाहर बाहर

तो मुस्कराकर इसे भी झेला

और कहा, धन्यवाद प्रेम!

स्रोत :
  • पुस्तक : ज़ख़्म पर धूल (पृष्ठ 15)
  • रचनाकार : मलयज
  • प्रकाशन : रचना प्रकाशन
  • संस्करण : 1971

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