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प्रेम एक शब्द है

prem ek shabd hai

नीलाभ अश्क

नीलाभ अश्क

प्रेम एक शब्द है

नीलाभ अश्क

कितनी नफ़रत है मुझे इन टोह-लेती उँगलियों से

जो मेरे दिमाग़ के अंदर बुने जा रहे महीन रेशों में

धँसती चली जाती है। उन्हें उलझाती और बिखराती हुईं।

महीनों के श्रम से सुलझाए गए तार

एक गुच्छा-मुच्छा लच्छे की तरह मेरे अंदर फैल जाते हैं

इन टोह-लेती उँगलियों के एक ही स्पर्श से।

कैसी विवशता है। कवच की दरार, वह घातक साँस

जिससे होकर मेरे अंदर ज़हर फैलता है। लगातार। लगातार।

तेज़ाब की ज़हरीली और घातक शक्ति की तरह

हम एक-दूसरे के एहसास को खाते हैं। हर रोज़।

कहाँ है वह खौलता हुआ लावा? किन तहों के नीचे दबा हुआ?

तल की अँधेरी गहराइयों में उबलता हुआ?

निष्प्रयोजन शक्ति की बाँहें उछालता हुआ, शून्य में।

धूप यहाँ ज़र्द है। पानी में सड़ते हैं दिनों के पत्ते।

हवा विषाक्त है। धरती खिसकती है पैरों तले

दलदल की तरह और आकाश सीखचों की तरह तना है।

प्रेम एक शब्द है अपनी निर्जीव बिल्लौरी चमक में क़ैद।

बेजान और निस्पंद। और वह हमारे लिए नहीं है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कुल जमा-2 (पृष्ठ 47)
  • रचनाकार : नीलाभ
  • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
  • संस्करण : 2012

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