प्रौढ़ शिक्षा

prauDh shiksha

धूमिल

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प्रौढ़ शिक्षा

धूमिल

काले तख़्ते पर सफ़ेद खड़िया से

मैं तुम्हारे लिए लिखता हूँ—‘अ’

और तुम्हारा मुख

किसी अंधी गुफा के द्वार की तरह

खुल जाता है—‘आऽऽ!’

यह भविष्य है यानी शब्दों की दुनिया में

आने की सहमति। तुमने पहली बार

बीते दिनों की यातना के ख़िलाफ़

मुँह खोला है

और यह उस आदमी का भविष्य है जिसका

गूँगापन

सिर्फ़, आत्महत्या की सरहद पर बोलता है

मुहावरों के हवाई हमले से बचने के लिए

जिसके दिमाग़ में शताब्दियों का अंधा कूप है

जो खोए हुए साहस की तलाश में

पशुओं की पूँछ के नीचे टटोलता है

जो किताबों के बीच में

जानवर-सा चुप है

यह उस आदमी का भविष्य है जो अचानक,

टूटते-टूटते, इस तरह तन गया है

कि कल तक जो मवेशीख़ाना था उसके लिए

आज पंचायत-भवन बन गया है

लालटेन की लौ ज़रा और तेज़ करो

उसे यहाँ—

पेड़ में गड़ी हुई कील से

लटका दो

हाँ—अब ठीक है

आज का सबक़ शुरू करने से पहले

मैं एक बार फिर वह सब बतलाना चाहूँगा

जिसे मैंने कल कहा था

क्योंकि पिछले पाठ का दुहराना

हर नई शुरुआत में शरीक है

कल मैंने कहा था कि वह दुनिया

जिसे ढकने के लिए तुम नंगे हो रहे थे

उसी दिन उघर गई थी

जिस दिन हर भाषा

तुम्हारे अँगूठा-निशान की स्याही में डूबकर

मर गई थी

तुम अपढ़ थे

गँवार थे

सीधे इतने कि बस—

‘दो और दो चार’ थे

मगर चालाक ‘सुराजिए’

आज़ादी के बाद के अँधेरे में

अपने पुरखों का रंगीन बलगम

और ग़लत इरादों का मौसम जी रहे थे

अपने-अपने दराज़ों की भाषा में बैठकर

‘गर्म कुत्ता’ खा रहे थे

‘सफेद घोड़ा’ पी रहे थे

उन्हें तुम्हारी भूख पर भरोसा था

सबसे पहले उन्होंने एक भाषा तैयार की

जो तुम्हें न्यायालय से लेकर नींद से पहले

की—

प्रार्थना तक, ग़लत रास्तों पर डालती थी

‘वह सच्चा पृथ्वीपुत्र है’

‘वह संसार का अन्नदाता है’

मगर तुम्हारे लिए कहा गया हर वाक्य,

एक धोखा है जो तुम्हें दलदल की ओर

ले जाता है

लहलहाती हुए फ़सलें...

बहती हुई नदी...

उड़ती हुई चिड़ियाँ...

यह सब, सिर्फ़, तुम्हें गूँगा करने की चाल है

क्या तुमने कभी सोचा कि तुम्हारा—

यह जो बुरा हाल है

इसकी वजह क्या है?

इसकी वजह वह खेत है

जो तुम्हारी भूख का दलाल है

आह! मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसा सत्य है

जिसे सकारते हुए हर आदमी झिझकता है

मगर तुम ख़ुद सोचो कि डबरे में

डूबता हुआ सूरज

खेत की मेड़ पर खड़े आदमी को

एक लंबी परछाईं के सिवा और क्या दे

सकता है

काफ़ी दुविधा के बाद

मुझे यह सच्चाई सकारनी पड़ी है

यद्यपि यह सही है कि सूरज

तुम्हारी जेब-घड़ी है

तुम्हारी पसलियों पर

मौसम की लटकती हुई ज़ंजीर

हवा में हिलती है और

पशुओं की हरकतों से

तुम्हें आनेवाले ख़तरों की गंध

मिलती है

लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है

इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में

गीली मिट्टी की तरह—हाँ-हाँ—मत करो

तनो

अकड़ो

अमरबेलि की तरह मत जियो

जड़ पकड़ो

बदलो—अपने-आपको बदलो

यह दुनिया बदल रही है

और यह रात है, सिर्फ़ रात...

इसका स्वागत करो

यह तुम्हें

शब्दों के नए परिचय की ओर लेकर

चल रही है।

स्रोत :
  • पुस्तक : संसद से सड़क तक (पृष्ठ 46)
  • रचनाकार : धूमिल
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2013

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