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प्रत्यावर्तन

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जगदीश चतुर्वेदी

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जगदीश चतुर्वेदी

प्रत्यावर्तन

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    एक अनिश्चय के बीच

    प्रेम को स्वीकारता हुआ कंधे का रक्त

    पिघलकर बहता रहता है चुपचाप!

    उँगलियाँ जाल बुनती रहती हैं

    और सूखे हुए होंठों पर

    मसली हुई जस्मिन की गंध बड़ा जाती है जड़ता।

    पपड़ी पड़े होंठों में एक आदिम गीत नग्न होकर फूटता है

    और सारे संबंध केवल देह को समर्पित होकर अंगों में

    खोजते हैं एक शिशु बीज!

    नए रक्त-कणों की गर्मी से उबलती हुई देह तमाम

    प्रणय-यात्राओं में अस्तित्व खोजती है।

    कई पोले रोम खड़े हो जाते हैं निस्पंद और शिराओं में

    चलती है बारिश के आख़िरी दिनों की तपिश!

    तुम्हारा समर्पण के पूर्व का तनाव और विकृति से भरा चेहरा

    मुझे वापिस लौटा देता है भीड़ में—

    मैं काट देता हूँ चाक़ू से अपनी जेब और अपनी जाँघ पर

    हाथों की गुदगुदी महसूस करता तराई में उतर जाता हूँ।

    आती रहती है काले सपाट पहाड़ों से एक आवाज़ और

    मुर्दा होंठों तथा सूखे तनों से हिलते स्तनों की परछाई

    रास्ता रोक लेती है।

    मैं बाईं के जल में पत्थर फेंककर

    आँख मूँद लेता हूँ

    और घुटनों के पास से

    मेरी पैंट चर्र के साथ फट जाती है!

    मुझे तुम्हारी और तुम्हारे देह समर्पण की गंदी स्मृति को

    अपने पास से बुहारना अच्छा लगता है

    मैं पहाड़ को गाली देता हूँ

    और तुम्हारे नाम को अँगूठे से

    पानी पर उछालता नदी में तैर जाता हूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 74)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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