Font by Mehr Nastaliq Web

प्रत्यावर्तन

pratyawartan

भारतभूषण अग्रवाल

अन्य

अन्य

भारतभूषण अग्रवाल

प्रत्यावर्तन

भारतभूषण अग्रवाल

और अधिकभारतभूषण अग्रवाल

    सचमुच मेरे मन में है यह विस्मय अपार :

    किस भाँति लौट कर जाती हो बार-बार

    तुम मेरे जीवन में, गीतों की प्रतिमे!

    मैं खो-खो कर भी पा जाता हूँ प्रति दिशि में

    तेरे चरणों की चपल चाप। जब-जब कठोर

    होने का निश्चय कर मैं बरबस मुस्का कर

    तुमसे कहता हूँ : ‘आज विदा आख़िरी, प्राण

    तुम व्यथाशून्य अपने नयनों की सजल कोर

    से जैसे लिख देती हो अपना प्यार अमर,

    तुम जैसे कह देती हो : ‘ओ! मेरे अजान!!

    यह सब किस से, जिस का है तेरे सपनों पर

    चिर आधिपत्य? मैं आज समझ पाया हूँ यह

    जिस सहज भाव से अनायास ही तुम प्रत्यह

    मुझ को करने देती हो अपना मुक्तियास

    उसमें रहता है निहित तुम्हारा अविश्वास

    मेरी क्षमता पर, मेरे प्राणों के बल पर।

    है आज भरा मेरे मन में सचमुच विस्मय।

    क्या तेरा सम्मोहन है इतना ही अटूट?

    क्या मेरे जी में है इतना ही प्रबल प्रणय?

    क्या सचमुच ही तेरी आभा के क्षुद्र बिंदु

    में बंदी है मधु का समुद्र, स्नेह का सिंधु

    जो मेरे अनजाने में ही प्राण में फूट

    लाता है मुझको बहा-बहा तेरे तट तक?

    में विस्मित हूँ : आकर्षण का वह लघु अंकुर

    किस भाँति अचानक आज बन गया अमरलता

    आच्छादित कर के प्राणों को? बतलाओ मेरी निर्बलता।

    किस पावक से जल उठते हैं वे आर्द्र-पलक

    जब डूबा रहता है सुधि-तम में अंत:पुर?

    किस दैव योग के मधु-विधान-सी तुम पथ में

    चौंका देती हो मुझको फिर-फिर, दृग भर-भर?

    री! बोलो, किस स्वर्गीय गान के मधुमय स्वर

    ने गूँथ लिया है अनायास लय बना हमें?

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 93)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY